शुकदेवजी- राजन,तुम्हारे साथ-साथ मैं भी कृतार्थ हो गया क्योंकि मुझे भी कथा कथा श्रवण का लाभ मिला है। तुम्हारे कारण मैं भी प्रभु में लीन हो सका। वे मेरे ह्रदय में विराजमान हुए।
राजन,मै अब आगे कोई प्रसंग देखना नहीं चाहता। यदि कोई शंका हो तो पूछ सकते हो।
ब्रह्मनिष्ठ होने के कारण मेरी दृष्टि तक्षक के विष को अमृत बना देगी।
परीक्षित ने गुरुदेव को वंदन किया और कहा - अब मेरे मन में कोई शंका शेष नहीं है।
आपकी कृपा से मै निर्लेप और निर्भय हो गया हूँ।
शुकदेवजी ने जाने की अनुमति चाही तो राजा ने उनकी पूजा करने की इच्छा व्यक्त की।
राजा ने शुकदेवजी की पूजा की तो उन्होंने राजा के मस्तक पर अपना वरद हस्त पधराया।
उसी क्षण राजा को परमात्मा के दर्शन हुए। जीव और ब्रह्म एक हो गए।
बड़े-बड़े ऋषि इस क्षत्र में बैठे थे। उन्हें परम आश्चर्य हुआ।
शुकदेवजी का ज्ञान,वैराग्य और उनकी प्रेम-लक्षणा भक्ति अलौकिक है।
व्यासजी भी कथा सुनने बैठे थे,सोचते है कि मैंने अपने पुत्र को भागवत का अभ्यास कराया किन्तु -
जो तत्व शुकदेवजी जान सके,वह तो मै भी समझ नहीं पाया हूँ।
मेरा पुत्र तो मेरे से भी श्रेष्ठ है। व्यासजी ने शुकदेवजी को प्रणाम किया।
गुरुदेव शुकदेवजी अंतर्ध्यान हो गए।
परीक्षितजी गंगाजी में स्नान करके आदिनारायण परमात्मा का ध्यान करते है।
राजा परीक्षितजी के शरीर में से एक ज्योति निकली और महा ज्योति में मिल गई।
फिर तक्षक ने आकर राजा को दंश दिया,विषाग्नि में शरीर जल गया।
धन्य है परीक्षित को,जो काल के आगमन के पूर्व ही परमधाम में चले गए।
धन्य है शुकदेवजी को,और धन्य है भागवत कथा को।
सूतजी कहते है -परीक्षित का मोक्ष मैंने स्वयं देखा था।
कथा सुनकर जीवन में उतारोगे तो कथा श्रवण सार्थक होगा।
सत्कर्म का कोई अंत नहीं होता। जीवन के अंत तक सत्कर्म करो।
कथा श्रवण के समय वक्त और श्रोता से जाने-अनजाने कुछ दोष हो जाने की सम्भावना है।
अतः तीन बार “श्री हरये नमः इस प्रकार बोलो। ऐसा करने से सभी दोष जल जायेंगे।
अंत में जिनका नाम संकीर्तन सभी पापो का नाश करता है और
जिनको किये गए प्रणाम सभी दुखो को शान्त करते है उस परमात्मा को,श्रीहरि को हम प्रणाम करते है।
स्कन्ध १२ समाप्त
भागवत रहस्य-समाप्त
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