सत् नित्य हैं, चित् ज्ञान हैं, चित्-शक्ति अर्थात् ज्ञान-शक्ति ।
मनुष्य अपने स्वरूप में (आत्मामें) स्थित नहीं है, अतः इसे आनंद नहीं मिलता । मनुष्य जिस प्रकार बाहर विवेक रखता है वैसा घर में रखता नहीं है । मनुष्य एकान्त में स्व-स्वरूप में स्थित रहता नहीं,
जबकि उत्पत्ति, स्थिति और संहार लीला में श्रीठाकुरजी के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
श्रीठाकुरजी संहार को भी अपनी लीला ही मानते हैं। उत्पत्ति, स्थिति और संहार श्रीठाकुरजी की लीला है । परमात्मा तीनों में आनन्द मानते हैं और अपने “स्वरूप “ में स्थित रहते हैं ।
जिसका ज्ञान नित्य टिकता है, उसे ही आनंद मिलता है। वही आनंदमय होता है। जीव को यदि आनन्दरूप होना हो तो उसे सच्चिदानंद आश्रय होना है। यह जीव जब तक परिपूर्ण नहीं होता तब तक उसे शांति नहीं मिलती है। आनंद नहीं मिलता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ परिणाम में विनाशी होने के कारण परिपूर्ण नहीं है। परिपूर्ण स्वरुप यह तो भगवान श्रीनारायण है।
इस प्रभु नारायण को जो पहचानता है और उस नारायण के साथ मन को जो तदाकार करता है उसी का मन नारायण के साथ एक होता है। केवल वह जीवात्मा ही श्रीनारायण -रूप बनता है और वही परिपूर्ण होता है; तभी जीव का जीवन सफल होता है। जीव तब तक अपूर्ण है तब तक उसे शांति नहीं मिलती है। जीव जब ईश्वर से मिलता है और उसका अपरोक्ष साक्षात्कार करता है तभी जीव परिपूर्ण होता है।
परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन पाने के लिए ही यह मनुष्य का अवतार है। मानव ही श्रीभगवान का दर्शन कर सकता है। पशु को तो अपने स्वरुप का भान नहीं है,तो वह बेचारा परमात्मा का दर्शन तो करे ही कैसे ? परमात्मा के दर्शन के बिना जीवन सफल नहीं होता है। जो परमात्मा के दर्शन करता है उसी का जीवन सफल है।
यह जीव अनेक वर्षो से (अनंत जन्मो से) भोग भोगता चला आ रहा है,फिर भी इसे शांति तो मिली नहीं।
यह शांति तो तब मिले कि जब जीव को परमात्मा का दर्शन मिले।
श्रीकृष्ण परमात्मा के दर्शन के बिना जीव को परिपूर्ण शांति नहीं मिलती है।
दर्शन के तीन प्रकार शास्त्रो में बताय गए है।
१. स्वप्न में प्रभु की झांकी होती है। यह हुआ साधारण दर्शन।
२. मंदिर और मूर्ति में परमात्मा के दर्शन होे तो यह मध्यम दर्शन है।
३. ईश्वर का अपरोक्ष दर्शन,यह उत्तम दर्शन है।
परमात्मा का अपरोक्ष साक्षात्कार जब होता है तब जीवन सफल होता है।
वेदांत में साक्षात्कार के दो प्रकार कहे गए है। - (१) परोक्ष ज्ञान, (२) अपरोक्ष ज्ञान।
ईश्वर किसी एक स्थान पर ऐसा जो माने वह परोक्ष साक्षात्कार है. ईश्वर के बिना कुछ नहीं है।
ईश्वर ही सब कुछ है। मै भी ईश्वर से भिन्न नहीं हु,यह है ईश्वर का अपोरक्ष साक्षात्कार।
जिसे “मै स्वयं ब्रह्म हूँ (अहम ब्रह्मास्मि ) ऐसा ज्ञान (अनुभव) होता है ,
उसे (अपरोक्ष) साक्षात्कार हुआ है ऐसा कहा जाता है (माना जाता है).
देखने वाला ईश्वर को देखते ईश्वरमय बनता है तभी उसे ईश्वर का अपरोक्ष साक्षात्कार होता है।
ईश्वर का ही सब में अनुभव करते करते जो (उसी में) एकरूप हो जाता है (केवल) वही
ईश्वर के परिपूर्ण स्वरुप को जान सकता है। (पहचान सकता है) और
वेदांत में इसी को अपरोक्ष साक्षात्कार कहते है।