Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-01-भागवत-माहात्म्य-01







भागवत माहात्म्य
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे ।
तापत्रयविनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः ।।  (माहात्म्य अ- 1 श्लोक -1)

जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु है,
तथा जो तीनों प्रकार के ताप के  नाश-कर्ता  हैं -वह-
सच्चिदानंद स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को हम सब वंदन करते हैं ।

परमात्मा के तीन स्वरूप शास्त्रों में कहे गए हैं - सत, चित् तथा आनन्द ।
सत् प्रगट रूप से सर्वत्र है । चित्  (ज्ञान) तथा आनन्द अप्रगट हैं ।

जड़ वस्तुओं में सत् तथा चित् हैं परन्तु आनन्द नहीं है;
जीव में सत् और चित् प्रगट है परन्तु आनन्द अप्रगट रहता है अर्थात अप्रगटरूप से रहता है, अव्यक्तरूप से है । 
वैसे आनन्द इसके अपने अन्दर ही है, फिर भी आनन्द को मनुष्य (अपने) बाहर ही खोजता है ।
मनुष्य नारीदेह, धनसंपत्ति आदि में आनन्द खोजता है ।

आनंद तो हमारा  अपना स्वरूप है । आनंद तो -हमारे अन्दर ही है ।
इस आनंद को जीवन में किस प्रकार प्रगट करें यही भागवतशास्त्र सिखाता है ।

दूध में मक्खन रहता है फिर भी वह दीखता नहीं है । परन्तु दूध से वही बनकर, दही मंथन करने पर मक्खन 
दीख जाता है । ठीक इसी प्रकार से मानव को मनोमंथन करके आनंद को प्रगट करना है ।
दूध में जैसे मक्खन का अनुभव नहीं होता है,
इसी प्रकार ईश्वर का, कि जो सर्वत्र है, फिर बी उनका अनुभव नहीं होता है ।

जीव है तो ईश्वर का ही, फिर भी -वह- ईश्वर को पहचानने का यत्न करता नहीं है ।
इसी कारण से उसे आनंद नहीं मिलता है । कोई - कैसा भी जीव हो उसे ईश्वर से मिलना ही है ।
नास्तिक भी (थक हारकर) अन्त में शान्ति ही खोजता है ।

आनंद के अनेक प्रकार तैत्तरीय उपनिषद् में बताये गए हैं, परन्तु इनमें से दो मुख्य आनंद हैं-
(1) साधनजन्य आनन्द (2) स्वयंसिद्धि आनन्द ।

साधनजन्य आनंद अर्थात् विषयजन्य आनन्द, कि जो साधन या विषय के नाश होने पर-
उस आनंद का भी नाश होता है और होगा ।
योगियों के पास कुछ भी (साधन या विषय) नहीं होता फिर भी उनको, आनंद है अर्थात् सदा आनंद से रहते हैं, 
इससे सिद्ध होता है कि आनंद अन्दर है ।

सत्, चित्, आनन्द ईश्वर में परिपूर्ण हैं ।
परमात्मा परिपूर्ण सत् रूप, परिपूर्ण चित् रूप, परिपूर्ण आनन्दरूप है ।
परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्ण आनन्द-स्वरूप हैं । बिना ईश्वर के संसार अपूर्ण है ।
ईश्वर का अंश जीवात्मा भी अपूर्ण है । जीव में चिद् अंश है फिर भी परिपूर्ण नहीं है ।
मनुष्य में ज्ञान आता है परन्तु वह ज्ञान स्थायी नहीं होता ।
श्रीकृष्ण परिपूर्ण ज्ञानी हैं ।
श्रीकृष्ण को सोलह हजार रानियों के साथ बात करते समय भी वही ज्ञान था
और जिस समय सारी द्वारिका आदि का नाश हो रहा था उस समय भ वही ज्ञान था ।

श्रीकृष्ण का आनंद रानियों में या द्वारिका में है ही नहीं .
सबका विनाश हो रहा था तो भी श्रीकृष्ण के आनंदका विनाश नहीं होता है । 
कारण श्रीकृष्ण तो स्वयं आनन्दरूप हैं ।


          
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