Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-04


वेद त्याग का उपदेश करते हैं  . शास्त्र सब कुछ छोड़ने का कहते हैं।
शास्त्र तो कहते हैं,”काम  छोडो,क्रोध छोड़ो। परन्तु मनुष्य कुछ छोड़ नहीं सकता।  
जो साधारण पण सुपारी भी छोड़ नहीं सकते है, व  काम,क्रोध, लोभ किस प्रकार छोड़ेंगे ?

(सर्वसाधारण) मनुष्य को तो कुछ करना है  और कुछ छोड़ना नहीं हैं  .
परन्तु वेदान्तशास्त्र तो कहता है की सब कुछ छोड़कर, सर्वस्व का त्याग करके ईश्वर के पीछे पड़ोगे
तभी तुम ईश्वर को पहचान सकोगे,उनसे मिल सकोगे।  
किन्तु- सर्व का त्याग,सर्वस्व का त्याग तो साधारण मनुष्य के लिए सुलभ नहीं हैं।

वेद के चार भाग हैं - (१) संहिता), (२)ब्राह्मण, (३)आरण्यक, (४) भाष्य।
वेदों  की समाप्ति उपनिषदों से होती है अतः उसे वेदांत कहते है।  आरण्यक में उपनिषद  वाला  भाग आता  है।  जिन ग्रंथो का चिंतन ऋषि करते है उन्हें आरण्यक कहते है  

बंगलो  में भोग-विलासो में रहने वालों का उपनिषदों मे (उपनिषदों का अध्यन) अधिकार नहीं है।  
अपने जैसे संसार में फँसे  जीव उपनिषदों से ज्ञान को पचा नहीं सकते।
इन सब बातो का विचार करके व्यासजी से श्रीमद्भागवत की रचना की है।  
उपनिषदों का बताया मार्ग अपने जैसो के लिया सुलभ नहीं है।  उपनिषदों  का तात्पर्य त्याग  में है।  

जो -पान सुपारी,चाय नहीं छोड़ सकते-और जो दो चार घंटे कथा में बैठे तो भी नसवार  की डिब्बी
छोड़ नहीं सकते है,वें  कामक्रोधादि विकारो को कैसे छोड़ सकेंगे ?
कामसुख का उपभोग करते है वे योगाभ्यास  कैसे कर सकेंगे।?
भोगी अगर योगी होने जाएगा  तो वो रोगी हो जाएगा।
ज्ञानमार्ग में जिसका पतन होता है वह नास्तिक बनता है।  
योगमार्ग में जिसका पतन होता है वह रोगी बनता है।  
भक्तिमार्ग में जिसका पतन होता है वह आसक्त बनता है।  

कलियुगी मनुष्य योगाभ्यास नहीं कर सकता।  
इसलिये- भागवतशास्त्र की रचना कलियुग के जीवो के उपकार करने के लिये की गई है।

श्रीमद्भागवत में एक नविन मार्गदर्शन कराया गया है।
“हम घरबार और धंधा  नहीं छोड़ सकते” ऐसा कहने वालों  को भगवतशास्त्र कहता है,---
”निराश न होना,सब कुछ छोड़कर जंगल में जाने की जरूरत नहीं है।  
केवल जंगल में जाने से ही आनंद मिलता है ऐसा नहीं है।”
सामान्य जीव जब सब प्रकार की प्रवृति छोड़कर निवृति में जाता है,तो उसके मन में प्रवृति के  ही विचार आते हैं   

श्रीभगवतशास्त्र का आदर्श दिव्य है।  गोपियों ने घर नहीं छोड़ा।  गोपियाँ घर का काम करती थी।
उन्होंने स्वधर्म का त्याग नहीं किया।  वे वन में नहीं गई। फिर भी  वे श्रीभगवान को प्राप्त कर सकी है।
श्रीभागवत-शास्त्र ऐसा मार्गदर्शन कराता  है कि  योगी को जो आनंद समाधि  में मिलता है,
वही  आनंद आप घर में हुए  भी प्राप्त कर सकते है।  
घर में रहकर भी आप प्रभु को प्रसन्न कर सकते है,प्राप्त कर सकते है।  परन्तु आपका प्रत्येक  व्यवहार भक्तिमय हो जाना चाहिये  . गोपियों का प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बन गया था।  

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