Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-05


घर में रहकर भी श्रीभगवान का दर्शन हो सकता है।  गोपियों को घर में ही  भगवान के दर्शन हुए  है।  
गोपियाँ  यही मानती थी कि  जहां  हम जाती हैं ,हमारा श्रीकृष्ण हमारे साथ है।
व्रज में ऐसी गोपियों के दर्शन करके  उद्धवजी का ज्ञानगर्व  उतर  गया था।  
और वो नन्द-बाबा को कहने लगे कि-
"नंद  बाबा के व्रज में रहनेवाली इन गोपियों की चरणरज को मै  बारबार प्रणाम करता  हूँ।  
इसे  मस्तक पर  चढ़ाता हूँ।  इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथाओ के  संबंध  में जो गुणगान किए  है वे तो तीनो लोकों को पवित्र कर रहे हैं और सदा सर्वदा पवित्र करते रहेंगे। "

गोपियाँ  सबमे श्रीभगवान को निहारती हैं।  वे कहती हैं -
"इस वृक्ष में,लता में फूल  में,मुझे मेरे प्रभु दिखते  हैं। मेरा कृष्ण तो मुझे छोड़कर तो जाता ही नहीं हैं। "
ऐसे,गोपियों को घर में ही श्रीपरमात्मा का साक्षात्कार हुआ हैं।

श्री भागवत में कहा है कि  घर में रहो,अपने व्यवहार  करो,फिर भी परमात्मा को प्राप्त कर सकोगे.
घर में रहना पाप नहीं है,परन्तु  मन में रखना पाप हैं।  सबको साधु होने की जरूरत नहीं हैं।  
यदि आप सब सन्यास ले लेंगे तो साधुसन्यासियो का स्वागत कौन करेगा ? उनकासन्मान कौन करेगा?

गोपियों की प्रेमलक्षणा भक्ति ऐसी  दिव्य है कि  
उनको घर में रहते हुआ भी प्रभु की प्राप्ति हुई है. श्रीकृष्णरूप बनी हैं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण में मन मिलेगा वह श्रीकृष्णरूप हो जायगा।
ऐसे अलौकिक भक्तिमार्ग का भगवान व्यास नारायण इस भगवतशास्त्र में वर्णन करेंगे और
इसी भक्ति द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार होगा।
श्रीमद्भागवत आपके प्रत्येक व्यहवार को भी भक्तिमय बना देगा.
भगवान,व्यवहार  और परमार्थ का समन्वय कर देगा.

आपको घर में ही वहीं आनंद  मिलेगा -जो योगी वन में बैठकर भोगते है.
योगी समाधिमें जैसा आनंद पाते है वैसा आनंद गृहस्थ को भी प्राप्त  हो शके,
इसलिए भगवतशास्त्रकी रचना की गई है. संसार के विषय-सुखो के प्रति "वैराग्य" हो -
और प्रभु के प्रति "प्रेम" जगे- यही श्रीभागवत की कथालीलाओ  का उदेश्य हैं।

भागवत  अर्थात भगवन को मिलने-मिलाने का साधन।
संतो का आश्रय केने वाला संत बनता है,भागवत  का आश्रय लेने वाला भगवन होता है.
भक्ति केवल मंदिरों में ही हो शकती है ऐसा नहीं है, भक्ति तो जहाँ भी बैठ  जाओ वहीँ  हो सकती है.  
इस भक्ति के  लिए  कोई देश (स्थान) या काल (समय) की जरूरत नहीं हैं. भक्ति तो चौबीसों  घंटे करनी है. भक्ति के काल  (समय)  और भोग के काल (समय)) ऐसा जो भेद रखना  नहीं चाहिए..
भक्ति सतत करो,निरंतर करो. चौबीसों  घंटे ब्रह्म संबंध  बनाये रखो.
इश्वर का हमेशा ध्यान रखो,सदा सावधान रहो कि  माया के संबंध  न हो जाय।

जब वसुदेवजी ने श्रीकृष्ण को मस्तक पर पधराया तब उनका ब्रह्मसम्बंध  हुआ,जिससे उनके हाथ -पैर की  बेड़िया टूट गईं।  परन्तु योगमाया को लेकर जब वापस पहुँचे  तो फिर बंधन में पद गए।  
वसुदेवजी का ब्रह्मसम्बन्ध तो हुआ परन्तु वो इसे टिकाए  न रख सके. ब्रह्मसम्बंध  को टिकाए  रखना  चाहिऐ।

वैष्णव (भक्त) भगवान के साथ खेलते  हैं।  
जीव जो क्रिया करता है (जब वह सब) ईश्वर के लिया करता है  तो उसकी प्रत्येक क्रिया भक्ति बन जाती हैं।
भक्ति का विशेष संबंध  मन के साथ  है और जिससे भक्ति मन से नहीं होती उसे तन से सेवा करने की जरूरत है. मानसिक सेवा श्रेष्ठ हैं। साधु-संत तो मानसिक सेवा में तन्मय रहते हैं।

यदि ऐसी सेवा तन्मयता हो जाय तो जीव कृतार्थ होता हैं।

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