श्री भगवान को वंदन करने से पाप-ताप का नाश होता हैं। निर्भय होना हो तो प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण की
वंदना करो। मेरे भगवान दया के सागर हैं। केवल वाणी और शरीर से नहीं,परन्तु ह्रदय से वंदन करो.
ह्रदय से वंदन करने से श्रीभगवान के साथ ब्रह्म सम्बन्ध होता हैं।
जब भी घर से बाहर निकलो,श्रीठाकोरजी की वंदना प्रेमसे करके ही निक्लो.
ईश्वर प्रेम चाहते हैं और प्रेम हे देते हैं। वंदना करने से ईश्वर के साथ संबंध होता है.
पर- इस जीव का स्वभाव ऐसा है कि वह परमात्माको वंदन नहीं करता हैं।
घर में प्रवेश करते ही अगर पत्नी न हो अपने बालक से पूछता है कि तेरी माता कहाँ गई?
परन्तु इसकी क्या आवश्यक्ता है. वह बाहर गई तो तू बैठकर राम राम कर.
बाहर से घर में आओ तो उस समय भी ईश्वर की वंदना करो. मार्ग में चलते हुए भी वंदना करो.
यह जीव जो प्रेम से परमात्मा को प्रणाम करे तो उस पर श्रीपरमात्मा प्रसन्न होते हैं।
यह जीव चाहे और कुछ न करे,इतना तो करे कि बारबार श्रीपरमात्मा को वंदन करे.
वंदना करो तो सद्भाव से करो. प्रभु के मुझपर अनंत उपकार हैं।
श्रीपरमात्मा ने हमपर कितने उपकार किए हैं। बोलने और खाने को जीभ दी है. देखने के लिए आँखे दी हैं। सुनने के लिये कान दिया हैं। विचार करने के लिया मन दिया हैं। बुद्धि और विचारशक्ति भी परमात्मा ने ही दी हैं। ईश्वर के उपकारों को याद करो,याद रखो और कहो कि हे भगवान, में आपका ऋणी हूँ।
ऐसी उत्तम भावना के साथ वंदना करो. कहो कि मेरे परमात्मा तूने मुझपर कृपा की है.
तेरी कृपा से मै सुखी हूँ। मेरे पाप तो अनंत हैं,परन्तु हे नाथ आपकी कृपाये भी अनंत हैं।
श्रीपरमात्मा की वंदना उत्तम भावपूर्वक करें तो वह अवश्य सफल होती हैं।
विचार करो कि प्रभु ने मुझे जो दिया है,क्या मैं उसके योग्य हूँ।
"नाथ,मै तो योग्य नहीं हूँ,मै तो पापी हूँ फिर भी आपने मुझे सम्पति और प्रतिष्ठा दी है."
जीव योग्य नहीं है फिर भी प्रभु ने जीव को अधिक दे रखा है.
"नाथ,आपके अनंत उपकार हैं। "
वंदन करने से अभिमान का बोझ (भार) कम होता हैं। श्रीठाकोरजी का बिलकुल भार नहीं है।
कारन उनमे कोई अभिमान नहीं है. श्रीकृष्ण तो बोडाणा की पत्नी की नाक की नथ से तुल गए थे।
श्रीभागवत का आरम्भ भी वंदना से किया गया है और वंदना से ही समाप्ति की गई हैं।
नमामि हरि परंम्।
अकेले श्रीकृष्ण की वंदना नहीं की है अपितु कहा है- “श्रीकृष्णराय राधाकृष्णाय वयं नमः”
श्रीजी का अर्थ है राधाजी. श्रीराधाजी के साथ विराजमान श्रीठाकुरजी की मै वंदना करता हूँ।
परमात्मा की वंदना कर लेने के बाद श्रीमद्भागवत के वक्ता श्रीशुकदेवजी के वंदना की गई हैं।
वंदन कर के तुम्हारी क्रियाशक्ति और बुध्धिशक्ति अर्पण करने के पश्चात कुछ अघटित कार्य या
विचार न किया जाय। पढ़ने और विचारने से अधिक श्रेष्ठ आचरण हैं।
वेदो का अंत नहीं और पुराणो का पार नहीं हैं। मनुष्य जीवन लघु है और शास्त्र का कोई पार नहीं हैं।
परन्तु उस एक को अर्थात ईश्वर को जान लोगे तो सब कुछ जान जाओगे.
कलियुग का मनुष्य कम समय में भी भगवान को प्राप्त कर सकता हैं। यह श्रीभागवत में बताया गया हैं।