सूतजी कहते हैं - सात ही दिनों में राजा परीक्षित ने सद्गति प्राप्त की थी जो मैंने अपनी आँखों से देखा हैं।
परीक्षितजी का उद्धार हुआ. फिर भी हम सबका उद्धार क्यों नहीं होता हैं ?
हमें परीक्षित जैसे श्रोता होना चाहिए और वक्ता भी श्रीशुकदेव जैसा बने तो उद्धार हो जाए।
हम सब परीक्षित ही हैं। यह जीव गर्भ में आया और जिसने मेरी रक्षा की वह चतुर्भुज स्वरूपवाला पुरुष कहाँ हैं ? ऐसा कहते कहते ईश्वर की खोज में निकले वह जीव परीक्षित हैं।
परीक्षित अर्थात श्रीभगवान के दर्शन करने के लिए आतुर हुआ है ऐसा जीव.
परीक्षित की आतुरता का एक कारण था कि उन्हें मालूम हो गया था कि -
"सात दिनों में (सातवें दिन) मेरी मृत्यु होने वाली हैं। तक्षक नाग मुझे डसने वाला है. "
जीवमात्र को तक्षक नाग डसनेवाला हैं। तक्षक काल का स्वरुप है ऐसा भागवत में एकादश स्कंध में कहा है. कालरूपी तक्षक किसी को नहीं छोड़ता। वह सातवे दिन डंसता है. सप्ताह के कुल सात दिन है. इन सात दिनों में किसी एक दिन यह काल अवश्य डंसेगा। तो फिर परीक्षितजी की तरह काल को मत भूलो.
कोई भी जीव क्यों न हो,उसे काल का भय तो लगता है ही है.
मृत्यु का भय केवल मनुष्य को ही है ऐसा नहीं है. ब्रह्माजी को भी काल का भय लगता हैं।
श्रीभागवत मनुष्य को निर्भय बनाता है.
भागवत में लिखा है कि ध्रुवजी मृत्यु की शिर पर पाँव रखकर स्वर्ग में गए थे.
परीक्षितराजा समाप्ति में बोले है कि मुझे अब काल का भय नहीं रहा है.
भागवत सुनकर परमात्मा के साथ प्रेम करने पर उसे काल का भय नहीं लगता है.
जो भागवत को आश्रय लेते है वे निर्भय बनते हैं।
लोग मृत्यु को अमंगल मानते है,परन्तु यह मृत्यु अमंगल नहीं है. मृत्यु ( काल) परमात्मा कासेवक है
अतः मंगल भी है. श्रीठाकोरजी को लगता है कि मेरा बालक अब योग्य बना है तो -
वे मृत्यु को आज्ञा देता हैं कि उस जीव को पकड़ कर ले आओ.
जिसे पाप करने का विचार भी नहीं आता है -उसका मृत्यु मंगलमय होता है.
जो,जीवन (जीवन दरमियान) में मनुष्य मृत्यु का सच्चा भय नहीं रखता है इसी से उसका जीवन भी बिगड़ता है
और मरण (अंतकाल) में मनुष्य को जो घबराहट होती है वह काल के डर से नहीं,
किन्तु अपने किए हुए पापों की याद से होती हैं। पाप करते समय तो मनुष्य डरता नहीं है.
वो डरता तब है जब कि पापों की सजा भुगतने का समय आता है.
व्यव्हार में लोग एक दूसरे को भय रखते हैं। मुनीम शेठ का रखता है,कारकुन अधिकारीका आदि.
जब कि मनुष्य किसी भी दिन ईश्वर का भय नहीं रखता है,इसलिए वह दुखी होता है.
भागवत मनुष्य को निर्भय बनाता हैं। श्रीभागवत का आश्रय लेने से निर्भयता प्राप्त होती है.
हमें ऐसा सोचना चाहिए-कि- "मै अपने परमात्मा श्रीकृष्ण का अंश हूँ , मै भगवान का हूँ। "
और ऐसे परमात्मा को सदा अपने पास रखना है.
कुछ पैसे जेब में आ जाये तो मनुष्य को हिम्मत आ जाती है,तो जब आप परमात्मा को
हमेशा साथ ही रखकर ही फिरेंगे तो आप निर्भय ही बन जायेंगे,इसमें क्या आश्चर्य है.?
मृत्यु के भय बिना प्रभु में प्रीति होती ही नहीं है. इसलिए-मृत्यु (काल ) का भय रखो.
काल के, मृत्यु के भय से प्रभु में प्रीति होती है. अतः काल की,पाप की,धर्म की भीति रखो.
मनुष्य यदि सदा काल का भय रखे तो इससे पाप नहीं होगा. निर्भय होना हो तो पाप छोड़ दो.
श्री भागवतशास्त्र हमे निर्भय बनाता है.
मनुष्य को और किसी का भय चाहे न लगता हो फिर भी काल का भय तो इसे लगा ही रहता है.
जो,काम का नाश करके भक्ति और प्रेममय जीवन को जीता है,वह काल पर भी विजय पाता है.
काम को जो मारता है, वह काल का मार नहीं खाता।