Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-93


मन की मलिनता धोने के लिए विराट पुरुष का ध्यान धरना है।
विराट पुरुष का ध्यान करने का अर्थ है,इस जगत में जो दिख रहा हो उसमे परमात्मा का  वास  है,
ऐसा समझकर व्यवहार करना।
सारा जगत उसी विराट पुरुष का स्वरुप है। विराट पुरुष के ध्यान के लिए तीव्र वैराग्य जरुरी है।

सारा विश्व ब्रह्मरूप है,ऐसा मानकर ज्ञानी  पुरुष ललाट में ब्रह्म के दर्शन करता है।
प्रभु के एक अंग का चिंतन करना ध्यान है और प्रभु के सर्वांग का चिंतन करना धारणा है।
दासयभक्ति द्वारा ह्रदय जल्दी दीन  बनेगा।
पहले भगवान के चरणारविन्द का ध्यान करो,फिर मुखारविंद का और अन्त  में सर्वांगका ध्यान करो।

ध्यानयोगकी  कथा कपिल गीता में विस्तार से दी गयी है जिसका यहाँ संक्षेप में वर्णन किया गया है।
साधक सावधान होकर ध्यान करेगा तो -
उसकी समझ में यह बात आ जाएगी कि  माया की शक्ति भ्रांतिमय ही है।
ध्यान के बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता। ध्यान में मन यदि स्थिर न हो सके तो -
उस मनको मृत्युसे भयभीत करो। तभी वह स्थिर होगा। मनको किसी भी तरह समझाओ और स्थिर करो।

"क्षणभंगुर जीवन की कलिका,कल प्रातः को जाने खिली न खिली:
मल्याचालकी शुचि शीतल मंद,सुगंध समीर चली न चली।
कलिकाल कुठार लिए फिरता तन नम्रा है चोट झिली न झिली:
रट ले हरिनाम अरी  रसना,फिर अन्त समय में हिली न हिली। "

एकनाथ महाराज के पास एक वैष्णव आया। उसने महाराज को पूछा कि आपका मन ईश्वर में,सदासर्वदा श्रीकृष्ण में कैसे स्थिर रहता है? मेरा मन तो आधा घंटा भी प्रभु में स्थिर नहीं रह सकता।
मन को स्थिर करने का कोई उपाय बताये।

एकनाथ ने सोचा कि  उपदेश क्रियात्मक होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि -जाने दे इस बात को अभी। मुझे लगता है  कि  तेरी मृत्यु समीप आ रही है।
मृत्युके  पहले वैर और वासना का त्याग करना चाहिए। वैर और वासना मृत्यु को बिगाड़ती है।
सात दिन के बाद मेरे पास आना।

मृत्यु का नाम सुनते ही वैष्णव के होश उड़ गए। वह घर लौटा।
धन-सम्पति आदि सब कुछ पुत्रों के हाथों  में सोंप  दिया। उसने सबसे क्षमा याचना की और ईश्वर का ध्यान करने लगा। सात दिन के बाद वह एकनाथ महाराज के पास आया।
महाराज ने पूछा कि -इन सात दिनों में क्या-क्या किया?तूने कुछ पाप तो नहीं किया?
वैष्णव ने उत्तर दिया कि -मै  मृत्यु से ऐसा डर गया कि  सब कुछ छोड़कर प्रभु के ध्यान में लग गया।

एकनाथ ने कहा कि  मेरी एकाग्रता का यही रहस्य है। मै मृत्यु को रोज याद करता हूँ।
मै मृत्यु का मन से डर रखकर ईश्वर-भजन करता हूँ।
अतः सभी विषयो से मेरा मन हैट जाता है और सदासर्वदा श्रीकृष्ण में एकाग्र रहता है।
परमात्मा में मन तन्मय न हो सके तो कोई बात नहीं किन्तु संसार के साथ कभी तन्मय न बनो।
परमात्मा के ध्यान से जीव ईश्वर में मिल जाता है।
ध्यान करने वाला ध्येय में मिल जाता है। ध्याता,ध्यान और ध्येय तीनों  एक होते है।
यही मुक्ति है,यही अद्वैत है।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE