Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-94


ध्याता, ध्यान और ध्येय तथा दर्शन,दृष्टा और दृश्य एक बने तो समझो कि  
ध्यान में और दर्शन में एकतानता उत्पन्न हो गई है।
एकतानता होने से वह अन्य सब कुछ भूल जाता है और ईश्वर के सिवा  कुछ भी नहीं दीखता।

लोग परमात्मा को धन देते है किन्तु वे तो मन मांगते है।
व्यवहार करो किन्तु ईश्वर में,कृष्ण में मन रखकर करो।
जैसे पनिहारिन पानीसे भरे घड़े सिर  पर रखकर बातचीत करती हुई  चलती है
फिर भी उसका ध्यान सिर पर रखे हुए घड़े में रहता है कि  वह कही गिर न पड़े।
इसी तरह संसार के व्यवहार करते समय भी हमेशा ईश्वर का स्मरण भी करते रहो।
जगत के पदार्थो से आसक्ति न रखो।

विषयानंदी व्यक्ति ब्रह्मानन्द  को समझ नहीं सकता। ब्रह्मानन्द  का वर्णन भी नहीं कर सकता।
उपनिषद में दृष्टान्त  दिया गया है कि  -शक्कर से बनी  हुई गुड़िया ने सागर की गहराई को जानने का प्रयत्न किया। किन्तु वह सागर में जो गई सो गई ही। उसी में विलीन हो गई।
जो ईश्वर में लीन हो गया हो,उस जीव को कोई ईश्वर से अलग नहीं कर सकता।
जब जीव परमात्मा का ध्यान करता है,और लीन होता है,तब जीव का परमात्मा में लय  हो जाता है
और फिर जीव का जीवत्व रहता ही नहीं है।

भागवत में ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग दोनों बताए  गए है।
ज्ञानमार्ग में जीव ईश्वर के साथ एक होता है,और ईश्वर में विलीन हो जाता है।
दूसरी ओर वैष्णव आचार्य  कुछ द्वैत रखकर अद्वैत को मानते है।
भक्ति का आरम्भ भले ही द्वैत से हो,किन्तु उसकी समाप्ति तो अद्वैत से ही होती है ।
भक्त और भगवान अलग नहीं रह सकते।
जो जीव ईश्वर में विलीन हो गया उसे भगवान अपने रूप से अलग नहीं कर सकते।

वैष्णव आचार्य अभेद भाव में श्रध्धा  रखते है।
जैसे,जल में रहने वाली मछली पानी नहीं पी  सकती।
इस तरह जो ब्रह्मरूप हो चूका है,वह फिर परमात्मा के रसात्मक स्वरुप का अनुभव नहीं कर सकता।
इसीलिए,रसात्मक और आनन्दात्मक ब्रह्म का अनुभव करने के लिए जीव को कुछ अलग रहना पड़ेगा,
थोड़ा सा द्वैत रखना ही होगा।
तब भक्त कहता है कि मै अपने प्रभु का अंश हूँ,मै अपने भगवान की गोपी हूँ। मुझे परमात्मा के साथ एक नहीं होना है। मुझे तो परमात्मा की सेवा करनी है,मुझे गोलोक-धाम में जाना है।

भक्त जब लौकिक देह को छोड़कर अप्राकृत शरीर धारण करके गोलोकधाम में प्रवेश करता है तो भगवान को आनंद होता है। वह कहते है,मेरा अंश मुझे मिलने आया है। इसलिए भगवान उत्सव मानते है।
किन्तु तुकाराम कहते है कि कीर्तन करने से मुझे जो आनंद मिलता है,वह विठ्ठल बनने में नहीं मिलता।

जैसे,कीड़ा भंवरी  का चिंतन करता हुआ स्वयं भवरीरूप बन जाता है।
उसी तरह ब्रह्म का चिंतन करता हुआ जीव स्वयं ब्रह्मरूप बन जाता है। यह तो है कैवल्यमुक्ति।
जो व्यापक ब्रह्म में लीन हो चूका है,वह उससे अलग कैसे हो सकता है?
जो पानी में हर तरह से डूब गया हो,वह पानी का आस्वाद नहीं ले सकता।
उसी तरह ईश्वर में डूबा हुआ जीव ईश्वर के स्वरुप का रसानुभव नहीं कर सकता।

इसलिए वैष्णव महापुरुष थोड़ा सा द्वैत रखकर भगवान की सेवा स्मरण में कृतार्थता  अनुभव करते है।


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