Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-95


यह दोनों (द्वैत और अद्वैत) सिध्धान्त सत्य है।
गौरांग प्रभु - भेदाभेद भाव को मानते है। लीला भेद को मानते है। परन्तु तत्त्व-दृष्टी से अभेद है।
अभिन्न होने पर उन दोनों में सूक्ष्म भेद है।

एकनाथ महाराज ने भावार्थ रामायण में इस  सिद्धांत को  समज़ाने के लिए एक दृष्टान्त दिया है।
अशोकवन में राम के विरह में सीताजी राम का अखंड ध्यान-स्मरण करती है। सीताजी राम के ध्यान में तन्मय है। विरह में तन्मयता विशेष होती है। उन्हें सर्वत्र राम दीखते है। माताजी भूल जाती है कि वे सीता है।

सभी में राम का अनुभव करने वाला रामरूप बन जाता है। यही कैवल्यमुक्ति है।
सीताजी को कई बार लगता है कि  वह रामरूप है। वे अपना स्त्रीत्व भूल जाती है।

एक बार सीता ने त्रिजटा से पूछा कि -मैने सुना है कि  कीड़ा भंवरी का चिंतन करता हुआ स्वयं भंवरी बन जाता है तो इसी भाँति रामजी का सतत चिंतन करने से मै भी यदि राम बन गई तो क्या होगा?
तब त्रिजटा  ने कहा कि-  माताजी,आप रामरूप हो जाये तो अच्छा ही होगा।
जीव और शिव एक हो जाये तो जीव कृतार्थ हो जाता है।
सीताजी कहती है कि- यदि मै राम का चिंतन करती हुई स्वयं राम बन गई तो फिर रामजी की सेवा कौन करेगा?सीता रहकर राम की सेवा करने में जो आनंद है,वह स्वयं रामरूप  बनने में नहीं है।
मुझे राम होने में आनंद नहीं है। मुझे तो रामजी की सेवा करनी है।

सीताजी को दुःख होता है कि उनका युगलभाव खंडित हो जायेगा।
उस हालत में सीता राम का युगलभाव नहीं रह सकेगा।
तब त्रिजटा ने कहा- अन्योन्य प्रेम होने के कारण रामजी आपका चिंतन करते हुए सीतारूप बन जायेंगे
और इस तरह आपका युगलभाव जगत में अखंडित ही रहेगा।
यही भागवत की मुक्ति का रहस्य है।

वैष्णव आचार्य प्रथम द्वैत का नाश करते है और अद्वैत प्राप्त करते है।
फिर काल्पनिक द्वैत बनाये रखते है कि  जिसके कारण कन्हैया की गोपी भाव से पूजा की जा सके।

सत्रह तत्वों का सूक्ष्म शरीर है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर का नाश होने पर मुक्ति प्राप्त होती है।

विचार-प्रधान मनुष्य ज्ञानमार्ग पसंद करता है।
भावना-प्रधान मनुष्य कोमल-हृदयी होने के कारण भक्तिमार्ग पसंद करता है।
भागवत में जहाँ भी भक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है,वहाँ तीव्र शब्द भी प्रयुक्त हुआ है।
भक्ति तीव्र होनी चाहिए। बिना तीव्रता के साधारण भक्ति से कुछ नहीं होता।

वैराग्य की इच्छा वाला मुमुक्षु भक्त हो तो उसे तीव्र भक्तियोग से परम पुरुष,पूर्ण परमात्मा का पूजन करना चाहिए।

शुकदेवजी कहते है - मुक्ति प्राप्त करने के लिए आरम्भ में भोगो का त्याग करना ही पड़ेगा।
भोगी भक्तिमार्ग  में आगे नहीं बढ़ सकता। भोग की अपेक्षा त्याग में अनंत सुख है।
इन्द्रियजन्य सुख सभी प्राणियों में एक सा होता है। पशु का,मनुष्य का और देवगन्धर्व का
त्वचेन्द्रिय का स्पर्श सुख और जिव्हेन्द्रिय का रसपान  समान  ही होता है।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE