भोग में शान्ति नहीं मिलती,त्याग से शान्ति मिलती है। पशु,पंछी,मनुष्य सभी के लिए इन्द्रिय-सुख तो एक समान ही है। मनुष्य को जो सुख श्रीखंड खाने में मिलता है,वही सुख सुअर को विष्ठा खाने से मिलता है।
शुकदेवजी कहते है- राजन!तुमने आज तक अनेक भोगो का उपभोग किया। अब तुम अपनी एक-एक इन्द्रियों को भक्तिरस का पान कराओ। इन्द्रियरूपी पुष्प तुम भगवान को अर्पित करो।
राजन- धीरे-धीरे सयंम बढ़ाओ। श्रीकृष्ण का ध्यान धरना ही मनुष्यमात्र का कर्तव्य है।
जो ईश्वरमे तन्मय होता है,उसे मुक्ति मिलती है।
राजन,जन्म उसी का सफल हुआ जानो कि जिसे दूसरी बार माता के गर्भ में जाने का अवसर ही न मिले।
गर्भवास नरकवास है। कर्म और वासना को साथ लेकर जो जन्म लेता है,उसके लिए गर्भवास नरकवास है।
एक बार-शुकदेवजी जनक राजा के राजगृह में विध्या सिखने के लिए गए। विध्याभ्यास समाप्त हुआ।
शुकदेवजी ने गुरुदक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की। जनक राजा ने कहा,मुझे कोई गुरुदक्षिणा की इच्छा नहीं है। फिर भी तुम आग्रह करते हो तो जगत में जो चीज़ बिलकुल निरुपयोगी हो वही मुझे दे दो।
जनक राजा ने निरुपयोगी चीज़ मांगी तो शुकदेवजी उसकी खोज में निकल पड़े। प्रथम मिटटी उठायी तो उसने कहा कि मेरे उपयोग है। पत्थर ने भी वही कहा। जो भी चीज़ उठायी वह सब उपयोगी निकली।
अंत में हार कर शुकदेवजी ने विष्ठा उठाई। तो उसने भी कहा कि मै भी उपयोगी हूँ।
मनुष्य के शरीर में जाने से ही मेरी यह हालत हुई। फिर भी मै निरुपयोगी नहीं हूँ।
सोचते-सोचते शुकदेवजी ने पाया कि यह देहाभिमान ही निरुपयोगी है।
शुकदेवजी ने जनक राजा से कहा कि मै अपना देहाभिमान गुरुदक्षिणा में अर्पित करता हूँ।
यह सुनकर जनक राजा ने कहा कि अब तुम कृतार्थ हो गए हो।
शुकदेवजी ने देहाभिमान छोड़ दिया। देहभान न होने के कारण ही उन्होंने मंगलाचरण नहीं किया।
(चौथे अध्याय में मंगलाचरण किया है बारहवे श्लोक से। )
द्वीतीय स्कंध में अध्याय १-२-३ में भागवत का पूरा सार और सारा बोध आ गया है।
राजा को उपदेश देना था,वह इन तीन अध्यायों में विदित है।
फिर उसके बाद तो परीक्षित राजा का मन विषय की ओर न चला जाये इसलिए सभी चरित्र कह गए है।
शुकदेवजी स्तुति करते है -
जो महान भक्तवत्सल है और हठपूर्वक भक्तिहीन साधना वाले मनुष्य जिसकी छाया का भी स्पर्श नहीं कर सकते,जिसके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं तो फिर अधिक तो कैसे हो सकेगा तथा जो ऐश्वर्य -मुक्त होकर निरंतर ब्रह्म-स्वरुप अपने धाम में विहार कर रहे है,ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को मै बार-बार नमस्कार करता हूँ।
शुकदेवजी राधा-कृष्ण को दो नमस्कार करते है। क्योंकि राधाजी श्रीशुकदेवजी की गुरु है, राधाजी ने शुकदेवजी का ब्रह्मसम्बन्ध करवा दिया। इस श्लोक के “राधसा” शब्द का अर्थ कुछ महात्मा राधिकाजी भी करते है।
शुकदेवजी पूर्वजन्म में तोता थे। पूरा -दिन हरे-भरे निकुंज में राधा का नाम हमेशा रटते रहते थे।
तब राधाजी ने कहा-कि-बेटा,नारायण का नाम रटो। ऐसे राधाजी ने -ब्रह्म-सम्बन्ध करवाया -इसीलिए-
शुकदेवजी श्रीराधाजी के शिष्य है। यही कारण है कि भागवत में राधाजी के नाम का उल्लेख तक नहीं है।
गुरु का प्रकट रूप से नाम लेना शास्त्रनिषिध है।