Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-97


परीक्षित राजा ने पूछा कि  अपनी माया से भगवान इस सृष्टि  कैसे करते है। इस उत्पत्ति की कथा कहिये।

शुकदेवजी ने कहा- राजन,तुमने जो प्रश्न मुझसे पूछा है,वही प्रश्न नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था।
तुम उसकी कथा सुनो। ब्रह्माजी ने नारदजी को सृष्टि के आरम्भ की कथा कही थी।

भगवान की इच्छा हुई कि वे एक से अनेक बने-"एको हम बहु  श्याम ।"
उन्होंने २४ तत्त्व उत्पन्न किये। वे सभी तत्व कुछ न कर सके,तब प्रभु ने उन सभी तत्वों में प्रवेश किया।
तभी उन तत्वों में "चेतन शक्ति" प्रकट हुई।

ब्रह्माजी की निष्कपट तपश्चर्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपने स्वरुप का दर्शन कराया।
आत्मतत्व के ज्ञान के लिए उन्हें परम सत्य परमार्थ चीज का जो उपदेश किया,उसकी कथा सुनाता हूँ।

आदिदेव ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि रचने की इच्छा से सोच में डुबे हुए थे।
फिर भी जिस ज्ञान दृष्टि से सृष्टि की रचना की जा सकती थी,वह प्राप्त न हो सकी।
ऐसे में ब्रह्माजी ने आकाशवाणी सुनी-तप -तप। ब्रह्माजी ने समझा कि  मुझे तप करने का आदेश मिला है। ब्रह्माजी ने सौ वर्ष तक तप किया और उन्हें चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए।

तप के बिना किसी का काम नहीं बनेगा। तप का उल्टा है पत। जो  तप नहीं करता  उसका पतन होता है।
नारायण भगवान ने ब्रह्माजी को चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश दिया।
द्वितीय स्कंध के नवें अध्याय के ३२ से ३५ श्लोक ही चतुःश्लोकी भागवत  है।

आरम्भ में सभी जीव भागवत में निहित थे। भगवान प्रत्येक जीव को खोज-खोज कर उसके कर्मानुसार शरीर उसे देते है। फिर कहते है कि  अब मै छिपता जाता हूँ,तू मुझे खोज लेना। भगवान आँखमिचौली  खेलते है।

प्रभु कहते है-"जब जगत अस्तित्व में नहीं था तब भी मै था। जब जगत नहीं रहेगा,तब भी मै रहूँगा। "
जिस तरह स्वप्न में एक ही अनेक स्वरुप से दीखता है,उसी तरह जागृत अवस्था में अनेक में एक ही तत्व है,
ऐसा ज्ञानी पुरुषो का अनुभव है। आभूषण के आकर भिन्न-भिन्न होने पर भी सभी एक ही प्रकार के सुवर्ण से बने हुए होते है। मूल्य भी उस सुवर्ण का ही है,आकर का नहीं।

ईश्वर के सिवा  जो कुछ भी दिखाई देता है वह असत्य है।
\ईश्वर के सिवा दूसरा जो कुछ भी दिखाई दे,वह  ईश्वर की माया है।
अस्तित्व न होने पर भी जो दिखाई देता है और सभी में व्याप्त होते हुए भी ईश्वर दिखाई नहीं देता,
यह ईश्वर की माया ही है। यह माया का ही कार्य है। उसे ही महापुरुष "आवरण और विक्षेप "कहते है।

सभी का मूल उपादान कारण प्रभु है।
प्रभु में भासमान संसार सत्य नहीं है,किन्तु माया के कारण  आभासित होता है।
माया की दो शक्तियॉ है -
(१) माया की आवरण शक्ति परमात्मा को छिपाय रहती है।
(२) विक्षेप शक्ति - माया की विक्षेप शक्ति ईश्वर के अधिष्ठान में ही जगत का भास  कराती है।

अन्धकार के दृष्टांत द्वारा यह सिध्धान्त समझाया है।
जो नहीं है,वह भूल से दीखता है और जो है वह दीखता नहीं है।

आत्मस्वरूप का विस्मरण ही माया है।
अपने स्वरुप की विस्मृति स्वप्न ही है। जो स्वप्न दीखता है,वह देखने वाला सच्चा है।
स्वप्न में एक ही पुरुष दो दिखाई देता है।

तात्विक दृष्टी से देखें तो स्वप्न का साक्षी और प्रमाता एक ही है। वह जब जागता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि मै  तो घर में सेज पर ही सोया हुआ हूँ। स्वप्न का पुरुष भिन्न है।


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