Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-98


जगत का ब्रह्मतत्व एक ही है किन्तु माया के कारण अनेकत्व का भास  होता है।
माया  लगी हुई है। यह माया जीवन से कब लगी? कहा नहीं जा सकता,क्योंकि  माया अनादि है।
उसका मूल खोजने की जरुरत नहीं है।

माया का अर्थ  है अज्ञान। अज्ञान कब से शुरू हुआ,यह जानने की क्या जरुरत है?
माया जीव से कब लगी है,उसका विचार न करो। कब विस्मरण हुआ,यह कहा नहीं जा सकता।
उसी तरह अज्ञान का कब आरम्भ हुआ,यह भी नहीं कहा जा सकता।
पर अज्ञान  का तुरन्त  विनाश करना जरुरी है।
माया के बारे में सोचते रहने की अपेक्षा माया को दूर करने के लिए परमात्मा की शरण लेना ही हितावह है।

एक बार-माया के  दर्शन करने की सुदामा की इच्छा होने पर उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि  
आपकी माया का मै  दर्शन करना चाहता हूँ। वह कैसी होती है?
श्रीकृष्ण ने कहा कि समय आने पर उसका दर्शन कराऊँगा। चलो,पहले हम गोमती में स्नान कर लें।
वे दोनों गोमती के तट  पर आये। स्नान करने लगे। भगवान तो स्नान करके पीताम्बर पहनने लगे।
सुदामा ने जल में गोता  लगाया। उसी समय भगवान ने अपनी माया का दर्शन कराया।

सुदामा को लगा कि   बाढ़ आई है। वे उसमे बहे जा रहे है। उन्होंने एक घाट का आसरा लिया।
घूमते-फिरते वे एक गाँव  में आये। वहाँ एक हथिनी ने उन्हें फूलमाला पहनाई।
लोगो ने सुदामा से कहा कि हमारे देश के राजा की मृत्यु हो गई है।
इस गॉव  का नियम है कि  पहले राजा की मृत्यु के बाद हथिनी जिसको माला पहनाए, वही  राजा है।
इसलिए आप हमारे देश के राजा हो गए है।

सुदामा राजा बन गए। एक राजकन्या के साथ उनका विवाह भी हो गया।
बारह वर्ष के दाम्पत्य जीवन में दो पुत्र हुए। फिर एक दिन रानी बीमार होने से मर गई।
सुदामा दुःख से रोने लगे क्योंकि  वह रानी सुन्दर और सुशील थी। लोगो ने सुदामा से कहा कि  
मत रोओ। हमारी मायापुरी का नियम है कि  आपकी पत्नी जहाँ  गई है,वहाँ  आप भी भेजे जाये।
पत्नी की चिता  में आपको भी प्रवेश करना होगा।

अब सुदामा ने रोना बंद कर दिया और वे अपना रोना ही रोने लगे कि  अब मेरा क्या होगा?
उन्होंने लोगो से कहा कि  मै तो परदेशी हूँ। आपके गाँव  के कानून मुझ पर नहीं लग सकते।
मुझे एक बार स्नान-संध्या करने दो फिर चाहे मुझे जला देना।
स्नान करने गए तो चार पुरुष निगरानी करने लगे कि सुदामा कहीं  भाग न जाये।
सुदामा खूब डर  गए। घबराहट के मारे वे परमेश्वर को याद करने लगे।

वे रोते हुए नदी से बाहर  आए। उस समय भगवान तो तट पर खड़े हुए पीताम्बर पहन रहे थे।
भगवान ने पूछा कि क्यों रो रहे हो? सुदामा ने कहा कि सब कहाँ  चला गया?यह सब क्या है?मेरी तो समझ में कुछ नहीं आता। भगवान ने कहा कि "यही मेरी माया है। मेरे बिना जो आभास होता है,वाही मेरी माया है। "

माया का अर्थ है विस्मरण। “मा”निषेधात्मक है और ‘या’ हकारात्मक,इस प्रकार जो न हो,उसे दिखाए वह माया है।

माया के तीन प्रकार है। (१) स्व मोहिका (२) स्वजन-मोहिका,(३) विमुखजन-मोहिका।
जो हमेशा ब्रह्मदृष्टि रखता है,उसे माया पकड़ नहीं सकती।
माया जीव से लगी हुई है,यह सिध्धान्त तत्व-दृष्टी से सच्चा नहीं है।
माया नर्तकी है। वह सबको नचाती है। नर्तकी-माया के मोह से छूटना है तो
नर्तकी शब्द को उलट दो और तब होगा कीर्तन।कीर्तन करोगे तो माया छूटेगी।
कीर्तन-भक्ति में हरेक इन्द्रिय को काम मिलता है।
इसलिए महापुरुषों ने कीर्तन-भक्ति को श्रेष्ठ माना  है।

माया का पार पाने के लिए,माया जिसकी दासी है,उस मायापति परमात्मा को पाने का प्रयत्न करो।
माया की पीड़ा से मुक्ति पाना चाहते हो तो माधवराय की शरण में जाओ।

ब्रह्माजी ने नारद को ऐसी आज्ञा दी थी कि माया जिनकी दासी है,ऐसे मायापति परमात्मा के चरणों का आसरा लेकर प्रभु-भक्ति बढ़े उस तरह से इस सिध्धान्त  का प्रचार करो नारदजी ने वह उपदेश व्यासजी को दिया,व्यासजी ने उन चार श्लोकों के आधार पर हज़ार श्लोकों का भागवत शास्त्र रचा।

स्कंध-२-समाप्त 

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