Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-99-स्कंध-3



संसार दो तत्वों का मिश्रण है। जड़ और चेतन।
शरीर जड़ है और आत्मा चेतन है। किन्तु जड़चेतन की यह ग्रंथि असत्य है,
क्योंकि चेतन को जड़ वस्तु किस प्रकार बाँध  सकती है?
यह ग्रंथि असत्य होने पर भी,जिस तरह स्वप्न हमे रुलाते है वैसे ही यह हमे रुलाती है।
तात्विक दृष्टी से देखे तो हम यह नहीं कह सकते कि जड़ शरीर चेतन आत्मा को बांधकर रख सकता है।
चेतन आत्मा को जड़ शरीर बन्धन  में नहीं रख शकता । आत्मा शरीर से भिन्न है,यह बात सभी जानते है,
किन्तु इसका अनुभव बहुत काम लोग कर पाते है।

शुकदेवजी कहते है -हे राजन,तुम जो प्रश्न करते हो,वैसे ही प्रश्न विदुरजी ने मैत्रेयजी से पूछे थे।
ये विदुरजी ऐसे है कि आमंत्रण के बिना भी भगवान उनके घर गए थे।

परीक्षित ने कहा कि विदुरजी और मैत्रेयजी का मिलन  कब हुआ,वह मुझे बताइए।
शुकदेवजी कहते है कि आमन्त्रण पाए  बिना ही भगवान विदुरजी के घर गए थे,उस प्रसंग की बात पहले बता दू।

धृतराष्ट्र ने पांडवो को लाक्षाग्रह में जल देने  प्रयत्न किया था। विदुरजी ने धृतराष्ट्र को उपदेश दिया किन्तु उसका धृतराष्ट्र पर कुछ भी असर नहीं हुआ। विदुरजी ने सोचा कि  यह धृतराष्ट्र दुष्ट है। उसके कुसंग से मेरी बुध्धि भी भ्रष्ट हो जाएगी। फिर  भी उन्होंने उसको कई बार उपदेश दिया,किन्तु धृतराष्ट्र ने एक भी न सुनी तो विदुरजी ने उसके घर को ही छोड़ दिया।

विदुरजी अपनी पत्नी सुलभा के साथ समृध्ध  घर का त्याग करके वन में चले गए।
वनवासके बिना  जीवन में सुवास नहीं आ सकता।
इसलिए तो पांडवो ने और भगवान रामचन्द्रजी ने भी वनवास किया था।

विदुरजी तो पहले से ही  तपस्वी जीवन बिताते थे और भगवान का कीर्तन करते थे।
इसलिए दुर्योधन के छप्पन भोगों  को छोड़कर श्रीकृष्ण ने विदुरजी के घर भाजी का प्राशन  किया।

विदुर और सुलभा वन में नदी के किनारे कुटिया  बनाकर रहने लगे।
वे  हररोज तीन घंटे प्रभु का कीर्तन और तीन घंटे प्रभु की  सेवा करने लगे।
बारह वर्ष तक वे इस प्रकार भगवान की आराधना करते रहे।
भगवान का  कीर्तन करने के बाद जब  भूख  लगे तो -नदी किनारे उगी हुई  भाजी खाते  थे।

भोजन करना पाप नहीं है  भोजन में खो जाना और भोजन करते समय भगवान को भूल जाना पाप है।
कई लोग कढ़ी खाते खाते - उसी कढ़ीमें खो जाते है और अगले दिन माला फेरते हुए भी कढ़ी को याद करते है।
मन में सोचते है कि कढ़ी कितनी स्वादिष्ट थी।

विदुरजी ने सुना कि द्वारिकानाथ संधि कराने  के लिए हस्तिनापुर आ रहे है।
दूसरी ओर -धृतराष्ट्र ने सेवकों  को आज्ञा दी कि कृष्ण के स्वागत की तैयारी  करो। छप्पन भोग लगाओ।
धृतराष्ट्र सेवा कुभाव से करते है।

सेवा सदा सद्भाव से करनी चाहिए। जो सद्भाव से सेवा करते है उनकी सेवा से भगवान प्रसन्न होते है।

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