इन दोनों -जन-मृत्यु के मध्यमें समय में ही रिश्तेदार होते (बनते) है। ये कौन है,कहाँ से आते है?
यह सब भगवान की माया है। आत्मस्वरूप को बराबर जानने वाला ही आनंद पा सकता है।
यह जगत नहीं है,ऐसा अनुभव तो मनुष्य कर सकता है,किन्तु स्वयं का अनुभव नहीं कर सकता।
मनुष्य परमात्मा का अंश है,उसे शरीर से भिन्न होना है। आत्मा को पहचानना है.
दृश्य (जगत) में से दृष्टि को हटाकर सभी के साक्षी-स्वरूप दृष्टा में मन स्थिर करोगे तो सच्चा आनंद मिलेगा।
आत्मा-अनात्मा विवेक सभी का धर्म है। जगत अपूर्ण है,आत्मा परिपूर्ण।
मनुष्य जब तक अपने स्वरुप को स्वयं देख नहीं पाता,तब तक आनंद नहीं मिल पाता।
एक उदाहरण है -
एक शेठ ने अपनी बही में लिखा था कि गंगा-यमुना के मध्य में मैंने लाख रुपये रखे है।
एक बार लड़कों को पैसे की तकलीफ पड़ी तो उन्होंने पुरानी बही देखते यह बात पढ़ी
किन्तु वे उनका अर्थ नहीं समझ सके। इतने में उनके पुराने मुनीम वहाँ आये,
तो उनसे उस बही की बातों का अर्थ पूछा। मुनीम ने कहा -तुम्हारी दो गाये है यमुना और गंगा।
ये जिस स्थान पर बाँधी जाती है,वही बीचये रुपये गाढ़ कर रखे गए है।
इस दृष्टांत का आध्यात्मिक अर्थ यह है। गंगा और यमुना है हमारी इंगला और पिंगला नाड़ियाँ।
इन दोनों नाड़ियों के बीच होती है सुषुम्ना नाड़ी।
जब तक किसी सद्गुरु के द्वारा यह सुषुम्ना नाड़ी जागृत नहीं हो पाती,तब तक ब्रह्म का दर्शन नहीं हो पाता।
ज्ञानीजन ललाट में ब्रह्म का दर्शन करते है ,तो वैष्णवजन ह्रदय सिंहासन पर चतुर्भुज नारायण का दर्शन करते है। पांच महाभूतों में ईश्वर की भावना करना,ईश्वर का अनुभव करना सभी का धर्म है।
कीर्तन,स्मरण,सेवा,पूजा,नमस्कार और उनके प्रति दास्य,सख्य और आत्मसमर्पण -ये सभी का धर्म है।
इसके बाद विशिष्ट धर्मों का वर्णन है। ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र। ये चारों वर्ण ईश्वर के अंगो से उत्पन्न हुए है। ये सब एक ईश्वर के स्वरुप में है,ऐसी भावना रखो।
इसके बाद स्त्रियों के धर्म का वर्णन किया गया है। स्त्री को अपने पति में ईश्वर का भाव रखना चाहिए।
इसके बाद आश्रम धर्म की बात आती है।
आश्रम चार है-ब्रह्मचर्याश्रम,गृहस्थाश्रम,वानप्रस्थाश्रम और सन्याश्रम के धर्म बताए है।
ब्रह्मचर्याश्रम वृध्धि है और गृहस्थाश्रम क्षय। वानप्रस्थाश्रम में संयम बढाकर फिर से शक्ति बढ़ानी है,
शक्ति का गुणाकर करना है। सन्याश्रम में भागाकार है।
जब कि-नैष्ठिक ब्रह्मचारी हमेशा के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करता है।
परमात्मा के लिए सर्व सुखो का त्याग वह सन्यासी धर्म है।
अनासक्ति और जीव की सेवा वह गृहस्थ का धर्म है।
गृहस्थाश्रम में यह ध्यान रखना चाहिए कि पत्नी कामभोग का नहीं,धर्म का साधन है।
वह गृहस्थाश्रम की सहयिका है। पत्नी का संग सत्संग बने,तभी गृहस्थाश्रम दिव्यता धारण करता है।
गृहस्थाश्रम को न तो अधिक कठोर होना चाहिए और न अधिक सरल।