नारदजी ने श्रीकृष्ण की ओर इंगित करते हुए कहा -अयं ब्रह्म। (यह ब्रह्म है,भगवान है)
प्रभु ने सर झुकाकर मुँह छिपाया। मै ब्रह्म नहीं हूँ। नारद असत्य बोल रहे है। नारायण तो वैंकुंठ में विराजमान है।
नारदजी बोले -भगवान कभी-कभी लीला करते हुए असत्य बोलते है। उन्होंने बाल्यावस्था में भी अपनी माता यशोदा से एक बार कहा था कि मैंने मिटटी नहीं खाई है।
परन्तु संत हमेशा सत्य बोलते है। मे सच बोल रहा हूँ -”अयं ब्रह्म (ये ब्रह्म है).
आत्मानुभूति कई बार होने पर भी दृढ़ता नहीं आती है। दृढ़ता सद्गुरु की कृपा से आती है।
नारदजी ने धर्मराज को भगवान नारायण के दर्शन कराए है।
अब मिश्र वासना के प्रकरण का आरम्भ हो रहा है। सातवें स्कंध के ११ से १५ अध्याय में मिश्र वासना की बाते है।
मनुष्य की वासना मिश्र वासना है।
प्रथम मै स्वयं उपभोग करूँगा और फिर यदि कुछ बाकि बचा तो दूसरो को दूंगा। यही है मिश्र्वासना।
संत की वासना सद्वासना है और राक्षस की असद्वासना।
प्रह्लाद का चरित्र सुनने के बाद धर्मराज ने नारदजी को मनुष्य धर्म समझाने को कहा।
११ से १५ अध्याय तक धर्म की कथा है।
प्रथम चार अध्याय मे साधारण धर्म और पाँच से पंद्रहवे अध्याय में विशिष्ट धर्म बताया गया है।
मनुष्य का सच्चा मित्र धर्म है। जब कोई साथ नहीं देता,तब धर्म साथ देता है।
चाहे धन संपत्ति नष्ट हो जाये,पर धर्म का नाश नहीं होने देना चाहिए।
मनुष्य धन को ही -सुख मानता है,किन्तु यह सच नहीं है। अज्ञान है। सभी सुखो का साधन धन नहीं धर्म है। मानवसृष्टि के संचालन के लिए भगवान ने जो विधि विधान बनाये है,वही धर्म है।
धर्म की कथा की शुरुआत सत्य से की है और समाप्ति आत्मसमर्पण से।
नारदजी कहते है -इस धर्म की कथा बड़ी लम्बी है। मैंने इसे नारायण के मुख से सुनी है। अब तुम सुनो।
धर्म का स्व-रूप है-
सत्य - ईश्वर का स्वरुप है। सत्य साधन भी है। सत्य में अटल श्रध्धा रखो।
दया - सर्व में दयाभाव रखो। जहा तक हो सके,दुसरो का भला करो। दया विवेक से करो।
पवित्रता - शरीर के साथ-साथ मनशुद्धि और चित्तशुध्धि जरुरी है।
तपश्चर्या - वाणी,विचार और वर्तन शुध्ध रखना वह तपश्चर्या है।
तितिक्षा -सहनशक्ति का नाम है तितिक्षा। भगवद्कृपा से जो भी दुःख आए उसे सहन करना तितिक्षा है।
अहिंसा -मन,वचन और काया से किसी को भी दुखी न करना ही अहिंसा है।
ब्रह्मचर्य-काया,मन और आँख से ब्रह्मचर्य का पालन करना।ब्रह्मचर्य, मन को स्थिर करने का साधन है।
त्याग -कुछ भी त्याग करना धर्म है।
स्वाध्याय -सद्ग्रन्थ का चिंतन,मनन ही स्वाध्याय है।
आर्जवं -स्वाभाव को सरल रखना ही सभी का धर्म है।
संतोष-ईश्वर ने जितना दिया है,उसमे संतुष्ट रहने वाला व्यक्ति धनवान है और असंतुष्ट रहने वाला दरिद्र है।
समदृष्टि - सर्व में,सभी के प्रति समदृष्टि से देखना सभी का धर्म है। कोई कारण से विषमता करनी पड़े,किन्तु भावात्मक विषमता कभी न होनी चाहिए।
मौन-बिना कारण व्यर्थ कुछ भी न बोलना ही मौन है और यह सभी का धर्म है। वाणी पर बुध्धिपुर्वक अंकुश रखो।
आत्मचिंतन -प्रतिदिन सोचो कि मै कौन हूँ ?यह सोचना सबका धर्म है। मै शरीर नहीं हूँ -पर परमात्मा का अंश हूँ।