Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-213



रामकृष्ण कहते है कि- -  संसार भी एक समुद्र है। इस भवसागर को येन-केन-प्रकारेण पार करना ही होगा।
जो विध्या  संसार पार करने की कला सीखा सके,वही सच्ची विध्या है। भवसागर को तैरने के लिए भजन ही एक मात्र साधन है। इस भजन रूपी विध्या को सिखने के बदले मात्र सांसारिक विध्या सीखकर पंडिताई का अभिमान करने वाला व्यक्ति इस संसार में डूब जाता है।

धर्मराजा कहते है कि-मुझे भगवान के दर्शन अबतक ना हो पाए.आश्चर्य की बात देखो-कि-
धर्मराज की सभा में स्वयं द्वारिकानाथ विराजे थे,फिर भी धर्मराज उनके स्वरुप से अज्ञात थे।

परमात्मा गुप्त रहना चाहते है और जीव प्रकट। ईश्वर ने भांति-भांति के फल,फूल आदि किनती चीजों का सर्जन किया,फिर भी उन पर कही अपना नाम नहीं लिखा है। मनुष्य ने मकान आदि से लेकर अँगूठी जैसी छोटी चीज पर और अपने शरीर पर भी अपना नाम लिखा है। अरे भाई,शरीर पर तू क्यों नाम लिखता है?
उसे कौन ले जायेगा ? मकान पर नाम लिखा है मनहर निवास। पर यह मनहर कितने दिन जीने वाला है ?
यह सभी कुछ ठाकुरजी का है,फिर भी मानव नामरूप में फंसा हुआ है।
याद रखो कि अतिशय प्रसिध्धि पुण्य का क्षय  करती है।

कृष्ण पांडवो के बीच में रहते थे,फिर भी उन्होंने कोई पहचानता नहीं था।
युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के भोजन समारंभ में जूठी पत्रावलियां (पत्तलें) उठाने का काम करते थे।
श्रीकृष्ण का यही तो है दिव्य कर्मयोग। उन्होंने अपनी वाणी अपने जीवन में कार्यान्वित की।

धर्मराज इस बात को भूल गए थे कि स्वयं श्रीकृष्ण (भगवान) ही उनके साथ बात करते थे,रहते थे.
उनको वे  भगवान के रुपमे नहीं पहचानते थे. अतः वे कहते थे कि अभी तक भगवान के दर्शन नहीं हुए है।

नारदजी धर्मराज से कहते है -बड़े-बड़े मुनि आपके घर आए हुए है। उन्हें दक्षिणा का लोभ नहीं है,उन्होंने जंगल में कई वर्षो तक पेड़ के नीचे  बैठकर परमात्मा का चिंतन  किया है पर फिर भी परमात्मा का स्वरुप ध्यान में नहीं आया। इसलिए परमात्मा के दर्शन करने के लोभ से तेरे यज्ञ में आए  है।
राजा-प्रह्लाद से भी तू ज्यादा भाग्यशाली है -परमात्मा तुम्हारे  रिश्तेदार  बनकर तुम्हारे ही घर में रहते है।  

हमारे सबके घर में भी भगवान है किन्तु नारदजी जैसे संत द्वारा द्रष्टि मिलने पर ही उनके दर्शन हो सकते है।
नारदजी की बात सुनकर धर्मराजा राजसभा में चारों ओर देखने लगे,किन्तु कही भी उन्हें परमात्मा नजर नहीं आते। द्वारिकानाथ को देखते है,किन्तु उन्हें तो वे ममेरा भाई ही मानते थे।

इधर श्रीकृष्ण सोचते है कि नारदजी अब चुप हो जाये तो अच्छा है।
उन्होंने नारदजी से कहा -नारद,मुझे तुम प्रकट मत करो। अपनी कथा यही पूरी करो।
नारदजी ने कहा -इस सभा में जगत के जन्मदाता उपस्थित है। ब्रह्मा के भी पिता यहाँ बैठे है।

धर्मराजा पूछते है -कहाँ है भगवान? कहाँ है परब्रह्म? मुझे क्यों नहीं दिखाई देते?


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