Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-217



राम ने कहा -तेरे मन की इस परिवर्तन का दोषी तू नहीं है। इस मिटटी का प्रभाव है।
जिस भूमि पर जैसे काम किये जाते है,उसके अच्छे-बुरे परमाणु उस भूमिभाग में और वातावरण में रहते है।
जिस स्थान की यह मिटटी है,वहाँ सुंद और उपसुंद नाम के दो राक्षस का निवास था।

उन्होंने कड़ी तपश्चर्या करके ब्रह्मा को प्रसन्न करके अमरता का वरदान माँगा।
ब्रह्मा ने उनके मांग स्वीकार तो की पर कुछ नियंत्रण के साथ।
दोनों भाई में बहुत प्रेम था। और वे सोचते थे -कि दोनों का आपसमे कभी भी प्रेम कम नहीं हो शकता.
अतः उन्होंने कहा कि- "हमारी मृत्यु केवल आपसी विग्रह से ही हो सके। " ब्रह्मा ने वर  दिया।
उन दोनों ने सोचा कि  हम कभी झगड़ने वाले नहीं है अतः हम कभी नहीं मरेंगे।
अमरता का  घमंड के-कारण उन्होंने देवो को सताना शुरू किया। देवो ने ब्रह्माजी का आसरा लिया।

ब्रह्माजी ने तिलोत्तमा नाम की अप्सरा का सर्जन किया और उन दो असुरो के पास जाने की आज्ञा दी।
सुंद और उपसुंद इस अप्सरा को देखकर मोहांध  हो गए।
दोनों में उसको पाने के  लिए युध्ध हुआ और दोनों  की मृत्यु हो गई।
जिस भूमि पर जैसे कर्म किये जाते है,वैसे ही संस्कार वह भूमि भी प्राप्त कर लेती है।

गृहस्थ पितृश्राद्ध करे। काम क्रोध-लोभ का त्याग करे। काम का मूल है संकल्प।
संकल्प का त्याग करके काम को जितना चाहिए। मन में सुख का संकल्प नहीं आना चाहिए।
संकल्प ही दुःख का कारण है। काम की इच्छा अपूर्ण रहने पर क्रोध उत्पन्न होता है।क्रोध दुखदाता है।

संसारी लोग जिसे अनर्थ मानते है,वही अनर्थ लोभ है,ऐसा समझो और लोभ को जीतो।
तात्विक विचार से शोक,मोह और भय को जितना चाहिए।
गृहस्थ को सद्गुरु का आश्रय लेकर उसकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। सात्विक भोजन,स्थान और सत्संग से निद्रा को पराजित करना चाहिए। सत्वगुण की वृध्धि से मनुष्य का देह विलीन हो जाता है।
ज्ञानेश्वर ने १६ वे साल में और शंकराचार्य ने ३२ साल की उम्र में प्रयाण किया था।

तमोगुण की वृध्धि से निद्रा बढ़ती है और सत्वगुण की वृध्धि से नींद कम होती है। निद्रा तमोगुण का धर्म है।
सदाचार,सयंम,सात्विक आहार,विहार,आचार आदि से सत्वगुण बढ़ता है।
सत्वगुण की वृध्धि से प्रभुमिलन की आतुरता बढ़ेगी।

हर रोज प्रभु का ध्यान करो। ध्यान करने से ध्यान करने वाले में ईश्वर की शक्ति आती है।
गृहस्थ को इन्द्रियरूपी घोड़ो को नियंत्रण में रखना चाहिए।

जब तक मनुष्य-देहरूपी रथ अपने वश  में है तथा इन्द्रियाँ आदि सशक्त है,उस समय मनुष्य को सद्गुरु के चरणों की सेवा करके,तीक्ष्ण ज्ञानरूपी तलवार लेकर,श्री भगवान का बल धारण करके राग द्वेषादि शत्रुओं को जीत,और तत्पश्चात शांत होकर स्वानन्दरूपी स्वराज्य से संतुष्ट हो जाये।

गृहस्थ को मै कमाता हूँ ऐसा अभिमान नहीं रखना चहिये। द्रव्य मेरा है ऐसा भी अभिमान मत रखो।
द्रव्य सभी  का है। गृहस्थ भावाद्वैत सिध्ध करे। पति-पत्नी सत्संग करे। एकांत में बैठकर हरि-कीर्तन करो।
कीर्तन से कलि के दोषों का नाश होता है।

नारदजी-धर्मराजा को कहते है -अनेक गृहस्थ सत्संग और हरि-कीर्तन से पार हो गए है।
राजा,तुम नसीब वाले हो -बड़े-बड़े जो ईश्वर को देखने के लिए तरसते है, घर में है। तुम्हारे संबंधी है।
इस प्रकार नारद ने धर्मराजा को उपदेश दिया।
अन्त में इस प्रकरण की समाप्ति में धर्मराजा ने नारदजी की पूजा की।

स्कंध -७ (वासना-लीला) समाप्त


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