भागवत में स्पष्ट कहा है -श्रीकृष्ण ने गोपियों के शरीर को स्पर्श नहीं किया है।
गोपियोंने पाँच भौतिक शरीरका त्याग किया है। इन गोपियोंका स्वरुप अप्राकृत चिन्तनमय आनंदरूप है।
किसी को शंका होगी,गोपियों का पाँच भौतिक शरीर कैसे छूट गया?
श्रीकृष्ण का वियोग अग्नि है। पतिके विरह में जिस प्रकार पतिव्रता पत्नी जलती है
उसी प्रकार परमात्मा का विरह जीव को जलाता है। प्रभु के विरहके समय जीवका संसार में रहना पाप है।
श्रीकृष्ण की विरहाग्नि ने गोपियों के पाँच भौतिक शरीर को जला दिया
और उनको श्रीकृष्ण की भाँति अप्राकृत रसात्मक शरीर प्राप्त हुआ।
गोपियाँ श्रीकृष्ण-विरह में जलती है। श्रीकृष्ण के दर्शन मात्र से अब उनको तृप्ति नहीं होती।
दर्शन में द्वैत है। गोपियाँ परमात्मा से एकरूप होना चाहती है।
गोपियोंको जब से गोवर्धनलीला में श्रीकृष्ण के परमात्मा स्वरुप का दर्शन हुआ था,
तब से उनमे प्रेमभाव का बीजारोपण हुआ था। उन्होंने कन्हैया की बांसुरी भी सुनी।
प्रेम का आरम्भ द्वैत से होता है। प्रेयसी और प्रियतम अलग-अलग होते है। समय के साथ प्रेम बढ़ता है।
दोनों को एक हो जाने की इच्छा होती है। "मै" अब "तू" होने की इच्छा रखता है। अद्वैत की इच्छा जाग उठती है।
रासलीला में भी शुध्ध प्रेम की पराकाष्ठा है। और ऐसे-अद्वैत हुआ है। कृष्ण-गोपी एक हुए है।
प्रेम की अंतिम कक्षा मूर्छा है।
गोपियों का कृष्ण प्रेम इतना बढ़ा है कि अब आँख से आँसू नहीं निकलते पर मूर्छा आती है।
(क्योकि-जीव अब अति शुध्ध हुआ है,मन में कोई वासना नहीं रही)
श्रीकृष्ण ने बालमित्रों को कहा था कि अगर कोई गोपी को मूर्छा आये तो मुझे बुलाना।
मुझे मूर्छा उतारने का मन्त्र आता है। गोपी के प्राण और मन मेरे हाथ में है।
गोपी को मूर्छा आने पर कन्हैया को बुलाया गया। वे समझ गए कि गोपियों का प्रेम भाव बढ़ता जा रहा है।
कन्हैया ने गोपी को सहलाते हुए कान में कहा,शरद पूर्णिमा की रात्रि को तुझसे मिलूँगा।
तब तक धीरज रखकर मेरा ध्यान करती रहना। यह तेरा अन्तिम जन्म है। तू मुझे मिलकर मुझमे ही समा जाएगी।
भक्तजन परमात्मा को मिलने की आशा में जीते है।
जिसे भगवान अपनाते है उसे ही रासलीला में प्रवेश मिलता है।
गोकुलकी सभी गोपियाँ रासमें नहीं गई है। जिन गोपियोंको अधिकार प्राप्त हुआ था,वे ही जा सकी थी।