Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-469


ग्यारहवें स्कन्धमें दूसरे अध्यायसे उपदेश शुरू होता है।

एक बार नारदजी वसुदेव के यहाँ पधारे। वसुदेवजी ने उनकी पूजा की और कहा -
कृपया मुझे उपदेश दीजिये कि जिससे मै इस जन्म-मृत्युरूप भयानक संसारको अनायास ही पार कर सकू।
नारदजी ने कहा - आपका प्रश्न खूब सुन्दर है कारण कि यह भगवत धर्म के सन्दर्भ में है।
इसके सन्दर्भ में नवयोगेश्वर और निमिराजा का संवाद है वह श्रवण करो।

एक बार विदेहराज निमि के राज सभा में नवयोगेश्वर पधारे।
निमि राजा ने प्रश्न किया- परमकल्याण का स्वरुप कैसा है?उसका साधन क्या है?
क्या आप मुझे भागवतधर्म का उपदेश बताएँगे?
इस संसार में आधे क्षण का सत्संग भी मनुष्य के लिए परम निधि बन सकता है। कहा गया है कि-
भगवानमें आसक्त रहनेवाले संतोका क्षण भरका संग भी स्वर्ग और मोक्ष की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है।

योगेश्वर कहने लगे- राजन,ध्यान से सुनो।
श्रीकृष्ण अंशी है और जीव  अंश। अंशी से अंश अलग हुआ है।
कोई पूछेगा कि वे दोनों कब और कैसे विभक्त हुए?
अज्ञानका आरंभ कब हुआ,यह कैसे कहा जा सकता है?अज्ञान का तो नाश करना है।
जीव अपने स्वरुप को भूल गया है। और सोचता है कि - क्या मै  कोई स्त्री का हूँ-या कोई पुरुष का हूँ?

जीव-अंश ईश्वर-अंशी के मिलने पर ही सुख पा सकता है।
जीव जबसे  परमात्मासे विभक्त हुआ है वही महादुःख है। यह दुःख तभी दूर होगा जब जीव परमात्मामें मिल जाए। परमात्मा का आश्रय लिए बिना जीव निर्भय नहीं बन सकता।
जीव ईश्वरसे थोड़ा भी विभक्त होगा तो दुःखी होगा। जीव  मात्र रोगी है,क्योंकि वह वियोगी है,
और इस वियोगरूपी दुःख की दवा है कि जीव ईश्वर से सम्बन्ध जोड़े।
शुरू में इस शरीर से ब्रह्म-सम्बन्ध नहीं होता। शरीर मलिन है,शरीर में से सदा दुर्गन्ध आती है।
इसलिए प्रारम्भ में मन से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ो।

काल सभी के सिर पर मंडराता है। यदि उससे बचना है तो श्रीकृष्ण के शरण में जाओ।
सभी कार्य प्रभु की आज्ञा मानकर,प्रभु को प्रसन्न करने के लिए और प्रभु की ओर उन्मुख रहकर ही करो।
सभी व्यव्हार प्रभुके आंतरिक संधान रखकर ही करो। वैसा करने पर सभी क्रियाएँ भक्ति बन जाएगी।
सभी जीव, प्रभु का अंश है,ऐसा मानकर व्यवहार करने से व्यवहार भक्तिमय बन जायेगा।

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