एक बार उनकी पत्नी मायके गई हुई थी। तुलसीदास से विरह सहा न गया तो ससुराल की ओर चला दिए।
रात्रि का समय था और मूसलधार बारिस हो रही थी। नदी में जोरों की बाढ़ आई हुई थी।
एक शव को लकड़ी का टुकड़ा मानकर उसी पर सवार होकर उन्होंने नदी पार कर ली।
ससुराल के द्वार बंद थे तो उन्होंने खिड़की से अंदर जाना चाहा। वहाँ एक सर्प लटक रहा था।
उसको रस्सी मानकर ऊपर चढ़ गए और पत्नी के कमरे में पहुँचे।
पत्नी ने पति के पराक्रम की बात सुनी तो वह उन्हें उलाहना देने लगी।
जिस चमड़ी को निकाल कर देखने से घृणा हो ऐसे इस हाड-मांस के शरीर को आप प्रेम करते हो।
ऐसा प्रेम अगर रामजी पर करो तो तुम्हारा जीवन धन्य हो जायेगा। तुम्हारा कल्याण होगा और तुम्हे मुक्ति मिलेगी। तुलसीदास को पत्नी बात सुनकर धक्का सा लगा।
उनके ज्ञान-चक्षु खुल गए और उसी क्षण उन्होंने संसार का त्याग किया।
सारा जीवन रामजी की सेवा में व्यतीत किया।
श्रीकृष्णको भी अब यह सांसारिक प्रवृत्तियाँ बाधरूप लग रही है। इसलिए वे सर्व छोड़कर शयन करते है।
एक बार पिंडारिक तीर्थ में ऋषि-मुनि बैठे थे। यादवकुमारों ने उनका मज़ाक करने की युक्ति की।
उन्होंने सांब को नारी का वेश पहनाया और ऋषियों के पास ले जाकर उनसे पूछा-
महाराज,इस गर्भिणी नारी को पुत्र होगा या पुत्री?
ऋषियों को यह ठीक नहीं लगा और उन्हें शाप दिया -इसे पुत्र या पुत्री नहीं,
पर इसके गर्भ से मूसल पैदा होगा,जो तुम्हारे यदुवंश का नाश करेगा।
अब यादव भयभीत हो गए। उन्होंने उस मूसल का रजकण बनाकर समुद्र के किनारे फ़ेंक दिया और जो एक टुकड़ा बचा था,वह भी फ़ेंक दिया। उन रज कणों से उत्पन्न लकड़ियों से यादव आपस में लड़कर मर गए और उस टुकड़े से पारधी ने तीर बनाया जो श्रीकृष्ण के लिए प्राणधातक सिद्ध हुआ।
भगवान ने सोचा ये यादवकुमार भविष्य में जनता को सतायेंगे,अतः इस प्रकार उनका नाश किया।
वह मूसल काल ही तो था। बुद्धि विकृत होते ही काल आ जाता है।
जीव को उत्पत्ति और स्थिति में आनंद आता है,लयमें नहीं।
भगवान को लयमें भी आनंद आता है क्योंकि वे स्वयं ही आनंदरूप है।