स्कंध -११
ग्यारहवें स्कन्ध में पहले दश स्कन्धों का उपसंहार है।
इसमें कपिल-गीता,पुरंजन-आख्यान,भवाटवी-वर्णन आदि भी है।
एकादश स्कन्ध भगवान का मुख है जिसमे ज्ञान भरा है।
श्रीकृष्णकी कथा और लीला अनन्त है। इस कथाके प्राकट्यके साथ ही गंगास्नानकी महिमा कम हो गया है। भागीरथी के स्नान करने जाने के लिए रूपये-पैसो की जरुरत पड़ती है,वहाँ तक जाना पड़ता है।
जबकि कृष्ण कथामें स्नान करने के लिए न तो दूर जाना पड़ता है और न तो पैसों की जरुरत पड़ती है।
यहाँ गंगा जब चाहो प्रकट होती है। सुलभ है।
कृष्ण कथा हमे दोषोंका ज्ञात कराती है। इन्द्रियोंकी शुद्धि कराती है। इससे प्रभु- भजन करनेकी इच्छा होती है। श्रीकृष्ण का चिंतन करनेसे मन प्रभुमें मिल जाता है। इसलिए एकादश स्कन्ध मुक्ति लीला है।
जिसके मनका निरोध होता है उसे शीघ्र ही मुक्ति मिलती है।
मुक्त तो मनको करना है क्योंकि आत्मा तो मुक्त ही है।
विषयों का चिंतन छोड़कर ईश्वरका चिंतन करो तो जीव मुक्त हो जाएगा।
जीव अज्ञानके कारण बंधनका अनुभव करता है। उसे किसीने बांधा नहीं है।
विवेक,तत्वज्ञान और वैराग्यसे मोहको नष्ट किया जाए तो मुक्ति ही है।
मनको वैर और वासना से मुक्त रखोगे तो निरोध जल्दी होगा। जिसका वैराग्य दृढ़ हुआ हो,उसे ही मुक्ति मिलती है।
ग्यारहवें स्कन्ध का प्रथम अध्याय वैराग्य से सम्बंधित है। वैराग्य के बिना भक्ति नहीं हो पाती।
मन को समझाओ कि सुखका,धन-संपत्तिका,भोगका चिंतन,विषमय है। उससे कभी तृप्ति और शांतिका अनुभव नहीं हो पाता। ईश्वरके चिंतन के बिना,पवित्र विचार न आये,तो शुद्ध भक्तिका आरम्भ नहीं हो सकता।
सत्-असतका विचार करनेसे विवेक और वैराग्य उत्पन्न होगा। संसार के सभी जड़ पदार्थ दुःखरूप और असत है। मात्र चेतन परमात्मा आनंदरूप और सत् है। जीव को जब वैराग्य आता है तब सभी वस्तुस्थितिका ज्ञान होता है। जीवन में जब कोई झटका लगता है तो वैराग्य आता है।