ईश्वर साकार और निराकार दोनों रूपो से लीला करते है।
ईश्वर की निराकारता का यही अर्थ है कि उनका हम (मनुष्य) जैसा कोई आकार नहीं है।
निर्गुण और सगुण दोनों ब्रह्म वस्तुतः एक ही है। निर्गुण,भक्तिवश होकर सगुण बनते है।
वेदों स्तुति करते है -
नाथ,इस जगत में जो कुछ दिखाई देता है और अनुभव होता है,वह वस्तुतः आपका ही स्वरुप है।
लौकिक नामरूप सत्य नहीं है। जिस तरह मिट्टी के पात्र में मिट्टी ही होती है और बर्फ में जल ही होता है।
इसी प्रकार प्रभु सभी में व्याप्त है।
वेदों ने अंत में वर्णन किया है -ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है -
सो ईश्वर के किसी भी स्वरुप का बार-बार चिंतन,ध्यान,स्मरण और दर्शन करो।
वैसा करने से मन की शक्ति बढ़ेगी।
मन को परमात्मा के किसी भी स्वरुप में विवेकपूर्वक स्थिर कर दो।
अब शिव-तत्व और विष्णु तत्व का रहस्य समझाया है।
वेदस्तुति के कई विद्वान् अपने -अपने अर्थ बताते है।
आरम्भवाद,परिणामवाद,आदि कई मत विद्वानों ने प्रकट किये है
और अपनी-अपनी दृष्टी के अनुसार वे अर्थ करते है।
वेद ईश्वरका निषेधात्मक वर्णन करते है।
ज्ञानमार्गी “नेति-नेति”कहकर ईश्वर का वर्णन करते है।
भक्तिमार्ग “इति -इति” कहकर भगवान का वर्णन करते है। वैसे दोनों का लक्ष्य एक ही है।
श्रीकृष्ण ने ग्यारह वर्ष तक गोकुल में लीला की। फिर वे मथुरा गए।
वहाँ से द्वारिका जाकर उन्होंने कई बार विवाह किये। उद्धव को ज्ञानोपदेश देकर वे स्वधाम पधारे।
भगवान् की लीलाए अनंत है और गुण भी अनन्त।
उनकी लीलाओं का चिंतन करने से मन उनमे लीन हो जाता है,तद्रूप हो जाता है।
स्कन्ध-१० (उत्तरार्ध) समाप्त