Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-481


श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा -तू हमेशा ऐसी भावना रख कि मै तेरे साथ हूँ।
परमात्मा का हमेशा स्मरण करते रहना ही सिद्धि है।
किन्तु उद्धव का उद्वेग अभी मिटता नहीं है। सो भगवान ने अपनी चरण पादुका उसे दी।
अब उद्धव को लगा कि भगवान उसके साथ है।
श्रीकृष्ण को हमेशा अपने साथ रखो। परमात्मा के सानिध्य का सतत अनुभव करो
तुकाराम ने कहा है -चाहे मेरा वंश न रहे,चाहे मुझे भूखों मरना पड़े किन्तु प्रभु मेरे साथ रहे।

उद्धवजी बद्रिकाश्रम आये। गंगाजी में स्नान किया। पांडुकेश्वर में उद्धवजी बैठे है।
उनको सदगति मिल गयी और वे कृतार्थ हुए।

द्वारिकालीला की समाप्ति के समय पंढरपुर में पुंडलिक भक्त हुआ
जिसे कृतार्थ करने के लिए द्वारिकानाथ विठ्ठलनाथ बने।
पुंडलिक को माता-पिता की सेवा करने से समय नहीं मिलता,इसलिए कई बार उसे इच्छा होती है-
मुझे द्वारकाधीश के दर्शन करने है। पर वह द्वारका जा नहीं सकता।
सोचता है कि द्वारकानाथ मुझे यहाँ आकर दर्शन दे तो अच्छा है।

पुंडलिक की माता-पिता के प्रति भक्ति से द्वारकाधीश प्रसन्न हुए और उसे दर्शन देने पंढरपुर आये।
पुंडलिक माता-पिता की सेवा में इतना मशगूल है कि बाहर नहीं आता और कहा कि मेरी झोपड़ी बहुत छोटी है। उसने बाहर ईंट फेंकी और कहा कि आप इस पर खड़े रहो। मै माता-पिता की सेवा करके आता हूँ।

द्वारकानाथ ईंट पर खड़े है,उनकी कमर में वेदना होने लगी सो वे कमर पर हाथ रखकर खड़े,राह देख रहे है।
कटि पर हाथ रखकर विठ्ठलनाथ यह बोध देते है की मेरी शरण में आने वाले के लिए संसार कटिभर गहरा है।
उतने जल में कोई डूब नहीं सकता।
अपने पापो का प्रायश्चित करने मेरी शरण में आओगे तो संसारसागर से तर जाओगे।

श्रीकृष्ण की सेवा-स्मरण में जो तन्मय होता है वह अनायास ही संसार सागर तर जाता है।
द्वारकानाथ-विठ्ठलनाथ सर्व एक ही है। वे सभी भक्तो के ह्रदय में रहते है।


स्कन्ध-११ -समाप्त




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