Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-10


भागवत के भगवान इतने सरल है कि  वे सबके साथ बोलने को तैयार है,
जब कि  वेद-भगवान तो किसी अधिकारी  के साथ ही बोलते हैं।  
भागवतशास्त्र  मनुष्य को निसंदेह बनता है।  इस कथा में सब आ जाता है.
बुध्धि  का परिपाक ज्ञान का परिपाक,जीवन का परिपाक आदि हो जाने पर
भगवान व्यासजी ने इस ग्रन्थ की रचना की। है।  

भगवान के नाम का जाप करते हुए प्रेम से इस कथा का श्रवण करो।  तुम निसंदेह हो  जाओगे।  
भागवत  नारायणस्वरूप है।  परिपूर्ण है।  इसके श्रवण से आस्तिक को मार्गदर्शन मिलेगा और नास्तिक होगा वह आस्तिक बनेगा।  शुकदेवजी जैसे आत्माराम मुनि ने सर्वस्व छोड़ा, परन्तु वे भी इस कथा को नहीं छोड़ सके।  आत्माराम कोटि के महात्मा भी इस श्रीकृष्ण में मस्त बने है,पागल बने हैं।  सिध्द  आस्तिक,नास्तिक,पामर प्रत्येक को यह कथा जीवन का दान करती है।  

व्यहवार का ज्ञान भी भागवत  में आएगा।  
भागवत  में ज्ञानयोग,कर्मयोग,समाजधर्म,स्त्रीधर्म,आपद्धर्म,राजनीती आदि का ज्ञान भरा है।  
यह एक ऐसा शास्त्र  है कि  जिसके श्रवण और मनन करने पर कुछ जानने जैसा बाकी रहता नहीं हैं।   
साधक को साधन मार्ग में कैसे कैसे संशय आते हैं इन सबका विचार करके व्यास भगवानजी ने ये  कथा रची है।  व्यासजी ऐसा मानते है कि  जो कुछ मेरे इस भागवत में नहीं है, वह जग के किसी अन्य ग्रन्थ में भी नहीं है। भागवतशास्त्र  यह  परिपूर्ण नारायण का स्वरुप है,अतिशय दिव्य है।  

व्यासजी के आश्रम में गणपतिजी महाराज प्रगट हुए।  
व्यासजी ने कहा-”मुझे भागवतशास्त्र की रचना करनी है, परन्तु इसे लिखेगा कौन?”
गणपतिजी ने कहा-”मै  लिखने को तैयार हूँ।  परन्तु मै  एक  क्षण भी  खाली  नहीं बैठूंगा।
गणपतिजी का वाहन  चूहा है।  चूहे  का अर्थ है उधोग।  जो उधोग  पर बैठता है उसकी  सिध्धि  और बुध्धि  दासी बनती है।  सतत (निरंतर) उधोग  करोगे तो रिध्धि -सिध्धि  आपकी  दासी बनेगी।
एक क्षण भी ईश्वर के चिंतन के बिना मत बैठो।  

प्रत्येक कार्य के प्रारंभ  में गणपति की पूजा की जाती है।  
गणपतिजी विघ्नहर्ता हैं  . गणपति का पूजन करने का अर्थ है जितेन्द्रिय होना।  
गणपतिजी कहते हैं  कि  मैं  खाली  (बिना काम के) बैठता नहीं हूँ।  
जो हमेशा कार्यरत रहता हैउसका अमंगल नहीं होता।  

श्रीगणपतिजी बने है लेखक और व्यासजी बने है वक्ता .
श्रीगणपतिजी ने कहा, मै  तो एक क्षण भी खाली  नहीं बैठूंगा,आपको चौबीस घंटे कथा कहनी होगी।  
तब व्यासजी ने कहा,मै  जो कहू  वह योग्य है या अयोग्य  उसका पहले विचार करें और विचारपूर्वक लिखें।
सौ  श्लोक हो जाने पर व्यासजी एक ऐसा कूट श्लोक कह देते थे कि  जिससे गणपति को विचार करने में समय लग जाता था और इतने समय मेँ  व्यासजी अपने अन्य काम पूरे  कर लेते थे।  

श्रीभागवत में अनेको बार ऐसे प्रसंग आते है जिनका श्रोता और वक्ता विचार करे कि  उनका लक्ष्यार्थ क्या हैं।
इस बात का हम भी विचार करे इसके लिए व्यासजी ने अतिशयोक्ति भी की है और लिखा है।  
जैसे कि ,हिरण्याक्ष के मुकुट का अग्रभाग स्वर्ग से स्पर्श करता था और उसके शरीर से दिशाएँ आच्छादित हो जाती थी। लोभ दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है,यह तत्व बताने का उनका (इस कथन से) उद्देश्य था।
लिखा है की राजा चित्रकेतु की एक करोड़ रानिया थी।  (यह अतिशयोक्ति है)
संसार के विषयो  को जो चित्त (मन) में रखता है वही  चित्रकेतु है।  ऐसा चित्त (मन) जब विषयो में तन्मय हो जाता है तभी वह चित्त-रूपी चित्रकेतु  एक करोड़- रानियों के साथ रमण करता है। ऐसा इसका अर्थ है।  


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