Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-11


श्रीभागवत  में अनेको बार ऐसे प्रसंग आते है जिनका श्रोता और वक्ता विचार करे कि उनका लक्ष्यार्थ क्या है।  श्रोता -वक्ता विचार करे इसके  लिए  व्यासजी ने अतिशयोक्ति भी की है और लिखा है।
जैसे कि,हिरण्याक्ष  के मुकुट का अग्रभाग स्वर्ग से स्पर्श करता था और उसके शरीर से दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं।  लोभ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है,यह तत्व बताने का उनका (इस कथन से) उदेश्य था।

सत्कर्म में विघ्न आते है,इसलिए सात दिन की कथा का क्रम बताया गया है।  
अन्यथा सूतजी और शौनकादि की कथा एक हज़ार दिन चली थी।  
विघ्न न आये इसलिए व्यासजी सर्वप्रथम  “ श्रीगणेशायनमः” कहकर  गणपतिमहाराज की वंदना करते है।
इसके पश्चात सरस्वतीजी की वंदना करते है।  सरस्वती की कृपा से मनुष्य में समझ आती है।  
फिर सद्गुरु की वंदना करते है,और इसके बाद श्रीभागवत  के प्रधान देव श्रीकृष्ण की वंदना करते है।  

व्यासजी ने वृद्धावस्था में इस ग्रन्थ की रचना की है।  
अतः वे स्वयं तो इस ग्रन्थ का प्रचार कर नहीं पायेंगे।  इसलिए उनको  चिंता हुई कि-
"मैंने श्रीभागवतशास्त्र की रचना तो कर दी परन्तु इस ग्रन्थ का प्रचार कौन करेगा? "

यह शास्त्र में अब किसको दूँ। श्रीभागवतशास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए  रचा है।  
इसकी रचना करके मैंने कलम रख दी है।  
अब तक मै  बहुत बोला,मैंने बहुत लिखा,अब मै ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोडूंगा।  
जीव- जो प्रभु से अलग हो गया था वह श्रीकृष्ण के संमुख हो इसलिए मैंने भागवतशास्त्र  बनाया है।  
यह प्रेम का शास्त्र है।  इस प्रेमशास्त्र का प्रचार तो वही  कर सकता है जो अतिशय विरक्त हो।  
श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य के साथ प्रेम करने वाले इस कथा के अधिकारी नहीं है।  ऐसा कौन मिलेगा?

संसार सुख भोगने के बाद बहुतों  को वैराग्य आता है,परन्तु जन्म से जिसने वैराग्य अपनाया है वैसा कौन मिलेगा? किसी योग्य पुत्र को यह ज्ञान दे दूँ कि  जिससे वह जगत का कल्याण करे--
ऐसा विचार करके  वृद्धावस्था में भी व्यासजी को पुत्रेष्णा जगी।  
व्यासजी शोचते है कि-भगवान शंकर वैराग्य के स्वरुप हैं।
शिवजी मुझ पर कृपा करे और मेरे यहाँ पुत्ररूप से आए  तभी यह कार्य हो सकता है।  

रूद्र का जन्म है, परन्तु महारुद्र का जन्म नहीं है।  भगवान शिव परब्रह्म हैं।  उनका जन्म नहीं है।
अब  शिवजी महाराज जन्म धारण करें  तो इस भागवत का प्रचार करें।
भागवतशास्त्र का प्रचार तो शिवजी  ही कर सकते है,कारण  उनमे ही संपूर्ण वैराग्य है।  

व्यासजी ने श्रीशंकर की आराधना की।  शिवजी महाराज प्रसन्न हुए.
व्यासजी ने माँगा,
”समाधि  में जो आनंद आप भोगते है,वो ही आनंद जगत को देने के लिए  आप मेरे घर पुत्र रूप से पधारिये।”
भगवन शंकर को तो इस संसार में आना प्रिय  नहीं लगता है।  संसार में आने पर माया गले  लग जाती है।
कोयले  की खान में जाने पर हाथ-पैर काले होते ही है।  
व्यासजी ने कहा,कि  अनंत जीवो  के कल्याण करने के लिए  आप कृपा कीजिए और आइये।  
आपको माया कैसे प्रभावित कर सकती है?
शिवजी ने विचार किया कि  समाधि  में मैं  आनंद अनुभव करता हूँ ,यदि वैसा आनंद जगत को न दूँ तो मुझे स्वार्थी कहा जायगा।  समाधि के आनंद का दान मुझे जगत को देना चाहिए।  ऐसा विचार करके शिवजी महाराज अवतार लेने के लिए तत्पर हो गये।  



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