Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-12


श्रीशुकदेवजी भगवान  शिवजी के अवतार थे,अतः वे जन्म से ही पूर्ण निर्विकार थे।  
जो जन्म से विरक्त होता है -वही सोलह आने  (संपूर्ण) वैरागी कहलाता है।  
ज्ञानी पुरुष माया का संग नहीं रखते है।  वे सदा माया से असंग रहने का प्रयत्न करते है।  
अतः वैष्णव भक्त माया में भी ईश्वर का अनुभव करते है।  

श्रीशुकदेवजी के जन्म के कथा  दूसरे पुराण में भी हैं।
श्रीशुकदेवजी सोलह वर्ष माता के पेट में रहे थे।  सोलह वर्ष तक परमात्मा का ध्यान किया।  
श्रीव्यासजी ने पूछा की तुम बाहर  क्यों नहीं आते हो?
श्रीशुकदेवजी ने उत्तर दिया,”मै  संसार के भय से बाहर  नहीं आता हूँ ,मुझे माया का भय लगता है।”
बादमे जब श्री द्वारिकानाथ ने आश्वासन दिया कि " मेरी माया तुझे नहीं  लगेगी। "
तभी-श्रीशुकदेवजी माता के गर्भ से बाहर आये।  

श्रीशुकदेवजी की ब्रह्मनिष्ठा,वैराग्य,अलौकिक प्रेम-लक्षणा भक्ति देखकर
व्यासजी भी शुकदेवजी को मान देते  हैं।  जन्म होते ही श्रीशुकदेवजी वन की और जाने लगे।
माता वाटिकाजीने प्रार्थना की कि  मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्मरूप है। यह मेरे यहाँ से दूर न जाये।  इसे रोको।  व्यासजी  उन्हें समझाते  हैं ,”जो हमे अति प्रिय लगता है वाही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए।  
वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है।  
तत्पश्चात्त व्यासजी भी विह्वल हो उठे हैं ,विचार करते है।  
"अब यह तो जा रहा है, फिर  कर वापस आनेवाला नहीं है।"  
व्यासजी महाज्ञानी थे,फिर भी पुत्र के पीछे दौडे  हैं।  व्यासनारायण  श्रीशुकदेवजी को बुलाते हैं ,हे पुत्र! वापस लौटो।  मुझे छोड़कर जाना नहीं, में तुम्हे विवाह करने के लिए आग्रह नहीं करूँगा।  

शुकदेवजी श्रीकृष्ण का ध्यान करते करते सबका भान भूले है।  
उस उन्मत्त  अवस्था  में कौन किसका पिता  और कौन माता ?
लौकिक सम्बन्ध का विस्मरण होता है, तभी ब्रह्मसम्बन्ध  होता है।  
जब तक लौकिक  सम्बन्ध  का स्मरण होता है तब तक ईश्वर में आसक्ति (भक्ति)  नहीं  होती है।  

सर्वव्यापक हो चुके श्रीशुकदेवजी वृक्षों द्वारा उत्तर देते हैं, “हे मुनिराज, आपको पुत्र के वियोग से दुःख हो रहा है।  परन्तु हमको तो जो पत्थर भी मारता है, हम उसे फल देता हैं।  (वृक्षों के पुत्र उनके फल हैं )
पत्थर मारने वाले  को भी फल दे वही  वैष्णव है। तो आप पुत्र वियोग से किसलिए रोते  है?
आपका बेटा  तो जगत कल्याण करने चला है।  
फिर भी,व्यासजी की व्यग्रता दूर होती नहीं है, तब शुकदेवजी ने कहा,
“यह जीव तो अनेक बार पुत्र बना और अनेक बार पिता बना है।तो कौन पुत्र? और कौन  पिता ”

वासनाओं  से बंधा जीव अनेक बार पुत्र बना और अनेक बार पिता बना है।  अनेको बार पूर्व जन्म के शत्रु भी घर में आ जाते है।  अपनी वासनाओं के कारण  दादा ही पौत्र बनकर आता है।  
वासना ही पूर्वजन्म  का कारण  बनती है।  




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