Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-14


कथा  मनुष्य के जीवन को सुधारती  है।  जीवन को परिवर्तन करती है।  कथा मनुष्य के जीवन में क्रान्ति करती है।  कथा सुनकर भी यदि जीवन में कुछ परिवर्तन न हो तो मानो कि  तुमने कथा सुनी  ही नहीं है।  

शौनकमुनि  ने इसलिए प्रार्थना की है कि  
"मेरा ज्ञान बढे,मेरी भक्ति बढ़े ,और उनके साथ मेरा वैराग्य भी साथ साथ बढे ऐसी कथा सुनाइए। "

हलवे  में लौकिक दृष्टि से गेहूँ  की किंमत कुछ कम हैं।  किन्तु  आटे  के बिना  हलवा नहीं बन सकता।  
तत्त्व  दृष्टि से विचार करे तो आटे  की कीमत भी घी जितनी ही है।  
हलवा बनाने में घी,गुड, और आटे  की जरुरत एक सी है।
इसी प्रकार ज्ञान,भक्ति और वैराग्य की जरुरत एक समान  ही है और जीवन में इन तीनो की जरुरत  है।  
जिसमे ज्ञान,भक्ति और वैराग्य परिपूर्ण हो वही उत्तम वक्ता। है  

अनेक ऋषि-मुनि वहाँ  गंगा के किनारे बैठे थे पर कोई कथा करने के लिए  तैयार नहीं हुआ
तब भगवान  ने  श्रीशुकदेवजी को  की प्रेरणा दी. श्रीशुकदेवजी में ज्ञान,भक्ति और वैराग्य परिपूर्ण है।

भागवतशास्त्र प्रेम  शास्त्र है।  प्रेम तो पांचवा पुरुषार्थ है।  
श्रीकृष्ण के प्रेम में देहभान भूले तो मानो के प्रेम सिध्ध  हुआ।  परमात्मा प्रेम को ही अपना स्वरूप कहते है।  

ज्ञानमार्ग में प्राप्त की प्राप्ति है।  जो प्राप्त हुआ है उसी का अनुभव करना है।  
भक्तिमार्ग में भक्ति  द्वारा  भेद का विनाश करना है।  ज्ञानमार्ग में भेद का निषेध है।  ज्ञानमार्ग में ज्ञान से भेद का निषेध कहा है।  ज्ञान  और भक्ति-दोनों मार्ग का लक्ष्य एक ही है।  

सूतजी  कहते है- आप सब ज्ञानी है।  
परन्तु लोगो पर उपकार करने के लिए  आप प्रश्न पूछते है तो कृपया सावधान होकर कथा सुनिए।
पूर्व-जन्मों के पुण्य का का उदय होता है तभी इस पवित्र कथा के सुनने का योग मिलता है।  

कलियुग के जीवों  को कालरूपी सर्प के मुख से छुड़ाने के लिए  श्रीशुकदेवजी ने श्रीभागवत के कथा कही है।
जिस समय श्रीशुकदेवजी परीक्षित राजा को यह कथा  रहे थे उस समय अमृत लेकर स्वर्ग के देवतागण वहाँ  आए। उन्होंने कहा - स्वर्ग का यह अमृत हम राजा को देते है और बदले में यह कथामृत आप हमे दीजिए।  शुकदेवजी ने परीक्षितजी से पूछा कि  यह कथामृत पीना है या अमृत ?
परीक्षितजी ने पूछा  कि  स्वर्ग का अमृत पिने से क्या लाभ?
श्रीशुकदेवजी ने कहा की स्वर्ग का अमृत पिने से स्वर्ग के सुख मिलते है।  
परन्तु स्वर्ग का अमृत दुःख मिश्रित है।  
स्वर्ग का अमृत पिने से पुण्यो को क्षय होता है परन्तु पापों  को क्षय नहीं होता है।  
अतः स्वर्ग के अमृत से यह कथामृत श्रेष्ठ है।  तब परीक्षित राजा ने कहा -
”भगवान !  मुझे यह स्वर्ग का आनंद नहीं चाहिये। मै  तो इस कथामृत का ही पान करूँगा।”

सनतकुमार  स्वर्गलोक में रहते थे।  एक बार वे भी इस कथा का आनंद लेने भारत में आए  .
इससे लगता है की ब्रह्मलोक में भी इस कथा के आनंद जैसा कोई आनंद नहीं है।  

सात ही दिनों में ज्ञान और वैराग्य को जागृत  करने के लिए  यह कथा  है।  
ज्ञान  और वैराग्य  अंदर सोये  हुए  है उन्हें जाग्रत करना है।

सात दिन में ही इस ज्ञान और वैराग्य को जागृत करके भक्तिरस उत्पन्न करना है।  इसके लिए  यह कथा है।  ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है जो सात ही दिनों में मुक्ति दिलाए।  



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