जगत में असत्य बहुत बढ़ गया है। असत्य के समान कोई पाप नहीं है। उपनिषदों में कहा है कि असत्यभाषी को न केवल पाप ही लगता है अपितु उनके पुण्यों का भी क्षय होता है। यदि सच्चा आनंद पाने की इच्छा रखते हो तो सत्य में निष्ठां रखो। असत्य बोलनेवाला व्यक्ति न तो कभी सुखी हुआ है और न कभी होगा।
मितभाषी बनोगे तो सतभाषी बन सकोगे।
जगत में कही भी पवित्रता दिखाई नहीं देती। शरीर और वस्त्र जिस प्रकार साफ़-सुथरे रखते है,उसी प्रकार मन को भी पवित्र रखना चाहिए। मनुष्य कपड़ों को तो स्वच्छ रखता है किन्तु मन को स्वच्छ नहीं रखता है।
मन को बिलकुल पवित्र रखो क्योकि मन तो साथ-साथ आयेगा।
जगत में कही भी नीति का दर्शन नहीं होता है। मनुष्य को-नीति और अनीति से बहुत धन-सम्पति जुटानी है और कुमार्ग में खर्च भी करनी है। परिवार सुख के सिवाय भी कोई सुख है या नहीं,इसका विचार भी वो करता नहीं है। वह तो यही सोचता है कि इस धन-सम्पति से मै तो अपने परिवार को सुखी करूँगा। वो फिर अपनी इन्द्रियो का इतना दास बन जाता है कि उसे कोई पवित्र विचार आता ही नहीं है। शरीर और इन्द्रियों के सुख में वह ऐसा तो फँसा है कि शान्ति से विचार भी नहीं कर सकता कि सच्चा और श्रेष्ठ आनंद कौन सा है और कैसे मिल सकता है। जीवन में जब तक कोई पवित्र लक्ष्य निश्चित नहीं होगा तब तक पाप रुकेंगे नहीं।
जो लक्ष्य को लक्ष्य में रखता है वो ही पाप से बच सकता है।
मनुष्य को अपने जीवन का लक्ष्य मालूम नहीं है। वह मंदबुध्दि करने योग्य काम को करता ही नहीं है।
जगतमें अन्न विक्रय होने लगा है। जगत में पाप बहुत बढ़ गया है।
इसी से धरतीमाता ने अन्न को अपने पेट में समेट लिया है। अन्न विक्रय पाप है।
ज्ञान का भी विक्रय होने लगा है। ज्ञान को विक्रय मत करो। ब्राह्मण को चाहिए की वह निष्काम भाव से जगत्त को ज्ञान का दान करे। अन्नदान से भी ज्ञानदान श्रेष्ठ है। कारण ,ज्ञान से शांति मिलती है। जब से अन्न और ज्ञान का विक्रय होने लगा है तब से पवित्रता नष्ट हो गई है और पाप बढ़ गया है।
नारदजी कहेते है की-मनुष्य की भावना जब से बिगड़ी है तब से विश्व में उसका जीवन भी विकृत हो गया है।
संसार में मुझे कही भी शान्ति नज़र नहीं आई। इस प्रकार कलियुग के दोष देखता हुआ घूमता-फिरता मै वृन्दावन में आया। वहाँ एक कौतुक देखा।
मैंने एक युवती को देखा,उसके पास दो पुरुष मूर्छा में पड़े हुए थे। वह स्त्री चारों ओर देख रही थी।
उसी स्त्री ने मुझे(नारदजी को) बुलाया,अतः मै उसके पास गया।
इस युवती ने मुझसे कहा कि ठहरो! "क्षणं तिष्ठ "
दूसरे के काम करोगे तो तुम साधु बनोगे। सुवर्ण से भी अधिक मूल्यवान समय को माने वह साधु है।
जिसे समय की कोई कीमत नहीं है,वह अंतकाल में पछताता है। किसी का एक भी क्षण नहीं बिगाड़ना चाहिए।
"अतः जब एक क्षण ठहरने के लिए कहा गया तो मैंने उस युवती से पूछा कि देवीजी आप कौन है।
उस युवती ने मुझसे कहा कि मेरा नाम भक्ति है। ये ज्ञान और वैराग्य मेरे पुत्र है।
ये अब वृध्द हो गए है। मेरा जन्म तो द्रविड़ देश में हुआ है। "
महान आचार्य दक्षिण में प्रकट हुए थे। श्री शंकराचार्य जी और श्रीरामानुजाचार्यजी दक्षिण में उत्पन्न हुए थे।
"कर्णाटक में मेरा परिपालन हुआ है, और मेरी वृध्दि भी वही हुई। "