आचार और विचार जहाँ शुध्द होते है वहाँ भक्ति को पुष्टि मिलती है। आचार विचार शुध्द हो वहाँ भक्ति हो सकती है। विचारों के साथ-साथ आचार भी शुध्द होने चाहिए। कर्णाटक में आज भी आचार की शुध्दि देखने में आती है। भगवन व्यासजी को कर्णाटक के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। परन्तु जो सच्च था उसी का उन्होंने वर्णन किया है। आज भी लोग कर्णाटक में निर्जला एकादशी करते है।
""महाराष्ट्र के किसी-किसी स्थान पर मेरा सम्मान हुआ। "
( महाराष्ट्र में कही-कही भक्ति का सम्मान मिला है। पंढरपुर जैसे स्थल पर भक्ति का दर्शन होता है। )
"गुजरात में तो जीर्ण हो गई हूँ। “गुर्जरे जीर्णतां गता’"
गुजरात में अपने दोनों पुत्रों के साथ के साथ वृद्ध हुई।"
धन का दास प्रभु का दास नहीं हो सकता।
गुजरात कंचन (सोना) का लोभी हो गया है,अतःभक्ति छिन्न-भिन्न हो गई है।
भक्ति का प्रधान अंग नव है।
इनमे प्रथम है "श्रवण" केवल कथा सुन लेने से भक्ति पूरी नहीं होती है। जो सुना उसका "मनन" करो।
मनन करके जितना जीवन में उतारा हो,उतना ही भागवतश्रवण सार्थक हुआ कहा जायगा।
कथा सुनने से पाप जलते है परन्तु मनन करके जीवन में उतारने से तो मुक्ति मिलती है।
श्रवण-भक्ति छिन्न-भिन्न हो रही है,क्योंकि मनन नहीं रहा है। मनन नहीं करने से श्रवण नहीं होता।
मनन के अभाव से श्रवणभक्ति क्षीण होती जा रही है।
"कीर्तन" भक्ति भी नहीं रही है,क्योंकि कीर्तन में कीर्तन में धन का लोभ आ गया है:
और तभी से कीर्तन भक्ति भ्रष्ट हो गई है।
ज्ञानी पुरुषो को अपमान से भी सन्मान बुरा लगता है।
धन के लोभ की अपेक्षा कीर्ति का मोह छूटना बड़ा कठिन है। कीर्ति का मोह तो ज्ञानी को भी सताता है।
कथा-कीर्तन में जगत्त अनायास ही विस्मृत हो जाता है। कथा में जब बैठे हो तो संसार व्यहवार को मन से निकाल दो। मै अपने श्रीकृष्ण के चरणो में बैठा हूँ, ऐसी भावना रखो। कीर्तन-भक्ति निष्काम होनी चाहिए।
संत तुलसीदास ने कहा है कि "स्वातःसुखाय।" (मै अपने सुख के लिए कथा करता हूँ। )
दूसरों को क्या सुख मिलता है इसकी मुझे कोई खबर नहीं है।
मेरे मन को आनंद मिले इसलिए मै कथा करता हूँ।
"वंदन" भक्ति अभिमान के कारण चली गई। अभिमान बढ़ते ही वंदन भक्ति का नाश हुआ।
सब में श्रीकृष्ण की भावना रखकर सबको वंदन करो। वंदन करने से विरोध नष्ट होता है।
भक्त नरसिंह ने भक्त का लक्षण बताते हुए कहा है की “सकल लोक में सबको वन्दे” वही सच्चा वैष्णव है।
जो वंदन करता है वह वैष्णव है और जो वंदन कराना चाहता है वह वैष्णव नहीं है।
मन के भीतर जब तक अहंभाव रहेगा तब तक भक्ति की वृध्दि नहीं होगी।
आजकल तो लोग देह की बहुत पूजा करते है। श्रीठाकुरजी की सेवा के लिए, पूजा के लिए अब उनको समय नहीं मिलता है। देहपूजा बढ़ी कि देवपूजा गई। लोगों ने भाँति भाँति के साबुन बनाये है। चाहे जितना साबुन मलो किन्तु देह का जो रंग है वही रहेगा। परमात्मा ने जो रंग दिया है वही सच्चा रंग है ,और वही ठीक है।
मनुष्य बहुत विलासी हो गया है। इस कारन "अर्चन" भक्ति का हास हुआ।
शरीर को लोग बहुत सजाने-सँवारने लगे है तभी से अर्चन भक्ति चली गई। जीवन सादा रखो।