Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-19


इस प्रकार भक्ति के एक अंग का विनाश हुआ है।  
अर्थात जीव ईश्वर से विभक्त हुआ (जुदा हुआ) है, श्रीठाकुरजी से विमुख हुआ है।  
बुद्धि का जब बहुत अतिरेक होता है तो भक्ति का विनाश होता है।  
भक्ति छिन्न - भिन्न हुई तो जीवन भी विभक्त हो गया।  

भक्ति के दो बालक है - ज्ञान और वैराग्य।  भक्ति का आदर ज्ञान और वैराग्य के साथ करो।  
ज्ञान और वैराग्य मूर्छित होते है तो भक्ति रोती  है।  कलियुग में ज्ञान और वैराग्य क्षीण होते है,बढ़ते नहीं है।
ज्ञान जब से पुस्तको में आकर समा गया,तब से ज्ञान चला गया।  

नारदजी कहते है कि  ज्ञान और वैराग्य को मूर्छा क्यों आई है,यह मै  जानता हूँ।  
इस कलिकाल जगत में अधर्म बहुत बढ़ गया है।  इसी से उनको मूर्छा आई है।  
इस वृन्दावन की प्रेमभूमि  में तुमको पुष्टि मिली है।  
कलियुग में ज्ञान और वैराग्य की उपेक्षा होती है,अतः वे निरुत्साहित होकर  वृध्ध  और जीर्ण हो गये  हैं।
ज्ञान और वैराग्य के साथ मै भक्ति को जागृत करके मै उसका प्रचार करूँगा।

नारदजी ने ज्ञान  और वैराग्य को  जगाने के लिए अनेक प्रयत्न किए  पर कुछ न बना।  
वेदों  के अनेक पारायण  किए  तो भी ज्ञान-वैराग्य की मूर्छा नहीं गई।  

कुछ थोड़ा सा विचार करेंगे तो यह ध्यान में आ जाएगा कि  ऐसी कथा तो प्रत्येक घर में होती है।  
अपना यह ह्रदय ही वृन्दावन है।  इस ह्रदय के वृन्दावन में कभी-कभी वैराग्य जागृत होता है।  
परन्तु यह जाग्रति  स्थायी नहीं रहती है।
उपनिषदों और वेदों के पठन  से अपने ह्रदय में क्वचित ज्ञान और वैराग्य जागता  है।  
परन्तु फिर से वह मूर्छित हो जाते है।  स्मशान-भूमि में जब चिता जल रही होती है तो उसे देखकर कई व्यक्तियों को वैराग्य आता है।  परन्तु वह वैराग्य टिकाऊ नहीं होता।
काम-सुख  भोग लेने के बाद भी बहुतों  को वैराग्य आता है।  संसार के विषय के उपभोग कर लेने के बाद भी बहुतो को वैराग्य आता है।  परन्तु वह भी स्थायी नहीं होता।  
विषय-भोग के बाद अरुचि तो होती है ,परन्तु वह भी विवेक और वैराग्य से रहित होने के कारण टिकती नहीं है।  

ज्ञान, वैराग्य -भक्ति आदि सब कुछ वेदों  से ही उत्पन्न हुए  है।  
परन्तु वेदो की भाषा गूढ़ होने के कारण  सामान्य मनुष्य को समझ में कुछ नहीं आता।  
कलियुग में तो श्रीकृष्ण-कीर्तन और कथा से ही ज्ञान और वैराग्य जागृत होते है।  

नारदजी चिंता में फंसे  हुए  है की ज्ञान और वैराग्य की मूर्छा उतरती  क्यों नहीं है।  
उसी समय आकाशवाणी हुई कि   
तुम्हारा प्रयत्न  उत्तम है।  ज्ञान-वैराग्य के साथ भक्ति का प्रचार  करने के लिए  सत्कर्म कीजिए।  
नारदजी ने पूछा कि मै  क्या सत्कर्म करुँ।  
तो आकाशवाणी ने कहा की तुम्हे संत-महात्मा सत्कर्म क्या है,वह बताएँगे।  

नारदजी अनेक साधु-संतों  को पूछते है की ज्ञान-वैराग्य सहित भक्ति को पुष्टि मिले,ऐसा कोई उपाय बताओ।  
परन्तु  निश्चित उपाय कोई बता  सका तो  चिंता में पड़  गए। वे सोचने लगे की ऐसे संत कहाँ  मिलेंगे और  क्या बताएँगे। ऐसा विचार करते करते वे बद्रिकाश्रम में आये।  

वहाँ  सनकादि मुनिओं  के साथ उनका मिलन  हुआ।  नारदजी  ने सनत्कुमारो को यह सारी  कथा सुनाई।  नारदजी ने कहा कि  जिस देश में  जन्म लिया है,उसी देश के लिए यदि उपयोगी न बनु तो मेरा जीवन वृथा है।  आप ही बताए  मै  क्या सत्कर्म सत्कर्म करू।


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