Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-21



पाप भी कान से मन में आता है। कान को कथा-श्रवण करोगे तो मन भगवान में स्थिर होगा।
श्रीभगवान के ह्रदय प्रवेश के लिए हमारा देहमें -आँखे और कान -"द्वार  और साधन " है।  
कई लोग आँखों से  प्रभु को ह्रदय में उतारते है,तो  कुछ लोग कान के श्रवण से उतारते है।
अतः आँख और कान दोनों को पवित्र रखो, वहाँ  श्रीकृष्ण को पधराओ।  

प्रत्येक सत्कर्म के आरम्भ में शांतिपाठ किया जाता है।  उसका मंत्र है-"ओम भद्रं कर्णेभिः श्रुणयाम  देवाः। "
(हे देव, कानो से हम कल्याणकारी  वचन सुने। कान और आँख पवित्र हो। )
फिर सत्कर्मो का आरम्भ हो।  इसलिए तो पूजा में गुरु महाराज कान और आँखों को पानी लगाने को कहते है।  
विशुध्ध  इंद्रियों में ही परमात्मा  होता है इसलिए इंद्रियों  को शुध्ध रखो।  मन को भी शुध्ध  रखो।

काल (समय) नहीं बिगड़ा -मन बिगड़ा है। नेत्र और श्रोत को पवित्र करने के बाद कथा का आरम्भ होता है।  

सनकादि मुनि कहते है की इस भागवत में अठारह हजार श्लोक है।  अठारह की संख्या परिपूर्ण है।  
श्रीरामकृष्ण परिपूर्ण है अतः नवमी के दिन प्रगट हुए है।  
श्रीकृष्ण नवमी के दिन ही गोकुल में आये है,तभी नन्द-महोत्सव करने में आया है।
श्रीभागवत की मुख्य  कथा है नन्द-महोत्सव की।  इसमें   अठारह श्लोक है।  

श्रीभागवत पर प्राचीन और उत्तम टिका श्रीधर स्वामीजी की है।  
उन्होंने किसी सांप्रदायिक सिधान्तो का सहारा न लेकर स्वतंत्र  तरह से भागवत तत्त्व का विचार किया है।  उन्होंने कहा  हमारे ऋषि मुनि ने केवल निःस्वार्थ भाव से इस ग्रन्थ की रचना की है।  

भागवत तो श्रीनारायण का ही रूप है।  श्रीभगवान जब गोलोक में पधारे तब उन्होंने अपने तेजस्वरूप को इस ग्रन्थ में रखा था,ऐसा एकादश स्कंध में लिखा हुआ है।  
अतः भागवत  की शब्दमयी साक्षात मूर्ति है,श्रीकृष्ण की वाड्मय मूर्ति है।  

उद्धवजी ने जब पूछा कि  
आपके स्वर्गधाम-गमन के बाद इस पृथ्वी पर अधर्म बढ़ेगा तो धर्म किसकी शरण में जायगा?
श्रीभगवान ने तब कहा की मेरे भागवत  का जो आश्रय लेगा उसके घर में कलि नहीं आएगा।  

श्रीभागवत भगवान का नामस्वरूप है।  नाम से ही अन्य रूप सिध्ध  होते है।  
मन के मैल  को शुध्ध  करने के लिए यह भागवत  कथा है।  
ईश्वर के साथ प्रेम करने के लिए यह भागवत शास्त्र है।  

मनुष्य पत्नी,धन-सम्पति भोजन आदि के साथ प्रेम करता  इसलिए वह दुखी है।

श्रीरामानुजाचार्यजी के जीवन में एक प्रसंग हुआ था।  
रंगदास  नाम का एक शेठ जो एक वैश्या में आसक्त था।  एक दिन शेठ और वह वैश्या  प्रभु श्रीरंगनाथजी के मंदिर के पास से निकले।  शेठ रंगदास वैश्या  के सिर  पर छाता  पकडे जा  रहे थे।
ठीक  उसी समय श्रीरामानुजाचार्यजी  मंदिर से बाहर निकले।  

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