Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-22



श्रीरामानुजाचार्यजीने यह द्र्श्य  देखा।  
ये भी ईश्वर  है और वे ईश्वर में मिल जाये तो उनका भी उध्धार  हो जाये,ऐसा सोचकर वे उनसे मिलने गये।  
वे रंगदास से मिले और बोले कि  आप इस वैश्या  से प्रेम करते है, उसे देखकर मुझे बहुत आनंद हुआ।  
अस्थि और विष्टा से भरी इस स्त्री से तुम प्रेम करते हो। इस स्त्री की तुलना में मेरे प्रभु श्रीरंगनाथजी अति सुंदर है।  इस स्त्री से जैसा प्रेम करते हो ऐसा प्रेम मेरे प्रभु से करो।  प्रेम करने योग्य तो एक परमात्मा ही है।  
ऐसा कहकर उन्होंने रंगदास  को एक चांटा मारा।  रंगदास को वहाँ  समाधि लग गई।  
उसे रंगनाथजी के दर्शन हुए। उस दिन के बाद रंगदास ने किसी भी स्त्री से प्रेम नहीं किया।  

मनुष्य अपना प्रेमपात्र  हर क्षण बदलता है।  परन्तु कहीं  भी उसे शान्ति नहीं मिलती।  
बाल्यावस्था में माता से प्रेम करता है।  बड़े होने से मित्रों  से,विवाह के बाद पत्नी सेसे प्रेम करता है।  
थोड़े समय के बाद पत्नी से कहता है की विवाह करके बड़ी भूल की है।
उसके  बच्चो से प्रेम करता है। फिर धन से प्रेम करता है।  

किन्तु,जो ईश्वर को ही प्रेम का पात्र बनाओगे,तो फिर  पात्र  बदलने का प्रसंग ही न आयेगा ।  

श्रीभागवत बार-बार सुनोगे तो परमात्मा से प्रेम बढ़ेगा।  आजकल लोग भक्ति तो बहुत करते है
परन्तु ईश्वर को "साधन" और सांसारिक सुखों  का "साध्य"  मानकर ही करते है।  
अतः भक्ति सार्थक नहीं होती है और लोग दुखी होते है।
श्रीभगवान को ही "साध्य" (जिसको पाना है वो)  मानो।  

कथा में हास्यरस  गौण है।  कथा किसी को हँसाने के लिए नहीं है।  कथा तो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए है।  
ऐसा सोचो की-"मेरा आजतक का जीवन निरर्थक ही निकल गया "
जब ऐसा भाव ह्रदय में जागे तो ऐसी कथा का श्रवण सार्थक हुआ।  
कथा सुनने के बाद पाप न छूटे और वैराग्य उत्पन्न न हो तो कथा का श्रवण किस काम का?

श्रीभागवत के दर्शन से,श्रवण से,पूजन से, पापों  का नाश होता है।  
श्रीमद भागवत के श्रवण मात्र से ही सद्गति मिलती है।  
कथा-श्रवण का लाभ आत्मदेव ब्राह्मण का चरित्र (दृष्टांत) कहकर बतलाया गया है।  
बिना दृष्टांत का सिध्धान्त  मन को नहीं छूता।  
कथा केवल रूपक नहीं है।  कथा की लीला सच्ची है और उसमे  अध्यात्म-सिध्धान्त  भी सत्य है।  

तुंगभद्रा नदी के किनारे एक   गाँव  था।  
वहाँ  आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी धुन्धुली  के साथ रहता था।
आत्मदेव पवित्र था।  परन्तु धुन्धुली स्वभाव  की क्रूर,झगड़ने वाली और दुसरो को नुक्ताचीनी करने वाली थी।  आत्मदेव निःसंतान थे।  संतान के अभाव  से वे दुःखी  थे।  संतान के लिए आत्मदेव  बहुत प्रयत्न किये, परन्तु कोई सफलता नहीं मिली। अतः उन्होंने आत्महत्या करने का निश्चय किया और वन की ओर  प्रयाण किया।  

रास्ते में नदी के किनारे उन्हें एक महात्मा मिले।  वे रोने लगे।  महात्मा ने उन्हें रोने का कारण  पूछा।  
आत्मदेव ने कहा की मेरे पास सब कुछ है पर खाने वाला कोई नहीं है,अतः मै  दुःखी  हूँ  .
इसलिए आत्महत्या करने आया हूँ  .
महात्मा ने कहा कि  संतान नहीं है वह तो परमात्मा की कृपा है। पुत्र, परिवार न हो तो समझ लो कि  श्रीठाकुरजी  ने तुम्हारे हाथों  से सब कुछ कराने के लिए तुम्हारे भाग्य में लिखा है,इसलिए तुम्हे को संतान नहीं दी है।  
पुत्र तो दुःखरूप है।  ईश्वर जैसे भी स्थिति  में रखे उसमे संतोष मानकर  उसका स्मरण करना चाहिये  
और आनंद मानना चाहिए।  

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