Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-23


एक बार एकनाथ महाराज विट्ठलनाथजी के मंदिर में दर्शन करने गए।  
एकनाथजी को सुयोग्य पत्नी मिली थी इसलिए वे श्रीभगवान का उपकार मानते थे।  
वे कहते थे कि  मुझे स्त्री का संग नहीं  सत्संग मिला है।  

थोड़ी देर बाद उस मंदिर में तुकारामजी दर्शन करने के लिए आये।  तुकाराम की पत्नी कर्कशा थी।  
कर्कशा पत्नी के लिए भी तुकाराम भगवान का उपकार मानते थे।  
वे कहते थे की हे भगवान, यदि तुमने अच्छी पत्नी दी होती तो मै  सारा दिन उसी के पीछे लगा रहता और
तुमको भूल जाता।  अतः मेरा तो कर्कशा पत्नी के मिलने से ही भला हुआ है।  

एकनाथजी को प्रतिकूल पत्नी मिली उसमे आनंद है और तुकाराम को कर्कशा मिली तो  भी आनंद  है।
दोनों को अपनी परिस्थिति में संतोष है।  और भगवान का उपकार मानते है।

अपनी पत्नी की मृत्यु हुई तो नरसिंह  मेहता ने आनंद ही माना और कहा -
"भलु थयु भागी जंजाल। सूखे भजिशु श्री गोपाल। "
अर्थात अच्छा हुआ की परिवार का झंझट छूट  गया।
अब तो मै  सुख और निश्चिन्त मन से श्रीगोपाल का  भजन कर सकूंगा।  

एक संत की पत्नी अनुकूल थी,दूसरे की प्रतिकूल थी और तीसरे की संसार को छोडकर चली गई,
फिर भी ये तीनों  महात्मा अपनी-अपनी परिस्थिति से संतुष्ट थे।
सच्चा वैष्णव वही  है जो किसी भी परिस्थिति में परमात्मा की कृपा का अनुभव करता है और
मन को शांत और संतुष्ट रखता है।  मन को शांत रखना भी बड़ा पुण्य है।  

माता और पिता को अपने पुत्र की बहुत चिंता रहती है।  
परन्तु पुत्रेष्णा के साथ -साथ अनेक वासनाएँ  भी आती है।  उसके पीछे वित्तेषणा और लोकेषणा जागती है।  

आत्मदेव ने उस महात्मा को कहा की मुझे पुत्र दो,क्योकि पुत्र ही पिता को सद्गति देता है।  
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति।  
महात्मा आत्मदेव को समझाते है की श्रुति भगवती एक स्थान पर कहती है की पुत्र से मुक्ति नहीं मिलती।  
वंश के रक्षण के लिए सत्कर्म करो।  

यदि पुत्र ही सद्गति दे सकता हो तो संसार में प्रायः सभी के पुत्र होते है,अतः उन सभी को सद्गति मिलनी चाहिए।  पिता को कभी ऐसी आशा रखनी नहीं चाहिए की मेरा पुत्र श्राध्द  करेगा।तो मुझे सद्गति मिलेगी।
श्राध्द  करने से वह जीव अच्छी योनि में जाता है,परन्तु ऐसा मत समझो कि  
वह जन्म-मृत्यु के फेर से छूट  जायगा।  
श्राध्द  और पिंडदान मुक्ति नहीं दिल सकते। श्राध्द-कर्म -धर्म है।  
श्राध्द करने से नरक से छुटकारा मिलता है,परन्तु मुक्ति मिलती नहीं है।  
श्राध्द  करने से पितृगण प्रसन्न होते है और आशीर्वाद देते है।  

पिंडदान का सही अर्थ कोई समझता नहीं है।  इस शरीर को पिंड कहते है।  इसे परमात्मा को अर्पण करना ही पिंडदान है।यह निष्चय  करना है कि मुझे अपना जीवन ईश्वर को अर्पण करना है ,उसी का जीवन सार्थक है और उसी का पिंडदान सच्चा है।  अन्यथा यदि आटे  के पिंडदान से मिक्ति मिल जाती तो ऋषि,मुनि,ध्यान योग,योग,तप आदि साधनों  का निर्देश करते ही क्यों?


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