Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-24


स्वयं ही अपनी आत्मा का उध्धार  करना है।  जीव स्वयं ही अपना उध्धार  कर सकता है।  
स्वयं अपने द्वारा ही अपनी आत्मा का संसार-समुद्र से उध्धार  करें और अपनी आत्मा को अधोगति की और
न ले जाये।  जीव का उद्धार वह स्वयं नहीं करेगा तो कौन करेगा?मनुष्य का अपने सिवाय और कौन हितकारी हो सकता है?यदि वह स्वयं अपना श्रेय न करेगा तो पुत्रादि क्या करेंगे?

ईश्वर के लिए जो जीता है से अवश्य मुक्ति मिलती है।  
श्रुति भगवती तो कहती है-जब तक ईश्वर का अपरोक्ष अनुभव न हो,ज्ञान न हो,तब तक मुक्ति नहीं मिलती।  मृत्यु के पहले जो भगवान का अनुभव करते है,उन्हें ही मुक्ति मिलती है।  
परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार बिना मुक्ति नहीं मिलती।  

उसे जानकार ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर जाता है। परमपद की प्राप्ति का लिए इसके सिवाय
अन्य कोई मार्ग है ही नहीं।  श्रीभगवान को जाने बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है।  
अन्यथा केवल श्राध्द करने से कोई मुक्ति मिलती नही मिलती है।
अपने पिंड का दान करोगे अर्थात अपने शरीर को ही परमात्मा को अर्पण करोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा।  

अपना पिंडदान स्वयं अपने हाथों  से ही करो,वही  उत्तम है।  
जो पिंड में है वही  ब्रह्मांड  में है। निश्चय करो की इस शरीररूपी पिंड को श्रीपरमात्मा को अर्पण करना है।  
घर में जो कुछ है,वह सब ईश्वर में लगा दो और  “नारायण””नारायण” करो।

आत्मदेव को महात्मा की ये बात अच्छी नहीं लगी।  
उन्होंने कहा की पुत्र सुख से आप सन्यासी लोग अपरिचित है,अतः आप ऐसा कहते है।  

माता-पिता की गोद  को बालक जितनी भी गन्दी करे,फिर भी वे प्रसन्न होते है।  
असुख में सुख का अनुभव करना ही संसारियों का नियम है।  

महात्मा ने सुन्दर उपदेश दिया फिर भी आत्मदेव ने दुराग्रह किया कि  मुझे पुत्र दो,वरना मैं  प्राण त्याग करूँगा।  महात्मा को दया आई।  उन्होंने एक फल देकर कहा कि  इस फल को तुम अपनी पत्नी को खिलाना।  
तुम्हारे यहाँ योग्य पुत्र होगा।  
आत्मदेव ने घर लौटकर वह फल अपनी पत्नी को दिया।  धुंधुली फल खाने के बदले के बजाय अनेक तर्क-कुतर्क करने लगी।  वह सोचती है कि  फल खाने पर मै गर्भवती होउंगी और परिणामतः दुःखी  होउंगी और बालक के लालन-पालन करने में भी बड़ा दुःख है।  उसने ये बात अपनी छोटी बहन से कही तो उसने युक्ति बताई कि  मुझे बालक होने ही वाला है।  उसे मै  तुझे दे दूंगी। तू गर्भवती होने का नाटक कर।  

धुंधुली को पुत्र(फल) की इच्छा तो है किन्तु बिना कोई दुःख झेलें।  यह मनुष्य का स्वभाव  है कि  उसको सुख की तो इच्छा है किन्तु बिना किसी प्रयत्न के और बिना किसी कष्ट के।  

मनुष्य पुण्य करना नहीं चाहता,फिर भी पुण्य के फल की इच्छा करता है,
और पाप करता है,फिर भी पाप के फल को नहीं चाहता।  

छोटी बहन के कहने पर धुंधुली ने वह फल गाय को खिला दिया और स्वयं गर्भवती होने का नाटक करने लगी।  बहन के पुत्र को घर ले आई और जाहिर किया कि  यह मेरा पुत्र है।  धुंधुली ने अपने पुत्र का नाम धुंधुकारी रखा।  दूसरी तरफ गाय को जो फल खिलाया था उस गाय ने गाय जैसे कानो वाले मनुष्यकार बालक को जन्म दिया।  

उसका नाम गोकर्ण रखा गया।  दोनों बालक बड़े हुए।  गोकर्ण पंडित और ज्ञानी हुआ और धुंधुकारी दुष्ट निकला।  

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