Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-26



सूतजी समझाते  है की सत्संग से तुरुन्त  ही इन्द्रियों की शुध्धि  नहीं होती।  
मन और बुध्धि  जब भागवत और भगवान का आसरा लेंगे,तभी शुध्ध  होंगे।

धुंधुकारी कौन? सारा समय द्रव्य सुख और काम सुख का चिंतन करे वही धुंधुकारी है।  
जिसके जीवन में धर्म नहीं किन्तु  काम सुख और द्रव्य सुख प्रधान है,वही  धुंधुकारी है।  

सूतजी सावधान करते है,कि  बड़ा होने पर धुंधुकारी पांच वेश्याओ में फंस जाता है।  शब्द,स्पर्श,रूप,रस  और गंध-ये पाँच विषय ही वैश्याये  है।  ये पाँच  विषय ही धुंधुकारी अर्थात जीव को बांधते है।
वह शव के हाथों  से खाता था।  साफ लिखा है-शव हस्ते भोजनम्।  
शव के हाथ कौन से? जो हाथ परोपकार नहीं करते, वही हाथ शव के है।  
जिन हाथो से श्रीकृष्ण की सेवा न हो, जो हाथ परोपकार न करे,वे हाथ शव के ही है।  

धुंधुकारी स्नान और शौचक्रिया से हीन था। कामी था।  
स्नान के बाद संध्या-सेवा न करे तो वह स्नान व्यर्थ हा है।  अतः कहा है कि  वह स्नान करता ही नहीं था।  
स्नान करने के पश्चात सत्कर्म न हो तो वह स्नान पशु स्नान है।
स्नान केवल शरीर को स्वच्छ रखने के लिए नहीं है।
स्नान करने के बाद सेवा,गायत्री न हो तो वह स्नान भी पाप हो जाता है।  

शास्त्रों  में तीन प्रकार के स्नान बताये गए है।  उसमे ऋषिस्नान श्रेष्ठ है।  
उषाकाल में ४ से ५ बजे के समय में जो स्नान किया जाय, वह ऋषि स्नान है।  
इसके बाद ५ से ६ बजे तक के समय में किया गया स्नान मनुष्य स्नान है
और ६ के बाद किया गया स्नान राक्षसी स्नान है।

भगवान सूर्यनारायण के उदय के पश्चात्त दंतधावन,शौच आदि करना योग्य नहीं है।
सूर्य बुध्धि के स्वामी देव है। उनकी सन्ध्या  करने से बुध्धि  सतेज होती है।  
स्नान और सन्ध्या  नियमित करो।  सम्यक ध्यान ही सन्ध्या  है।

नित्य सत्कर्म किये बिना भोजन,भोजन नहीं है।  ऐसा मनुष्य भोजन नहीं किन्तु पाप का प्राशन करता है।  
जो पापी लोग अपने शरीर के पोषण के लिए अन्नोपादन  करते है, वे पाप का भोजन कर रहे है।  
अतः हमेशा सत्कर्म करो। आयुष्य का सदुपयोग करो।  

तन और मन को दंड दोगे  तो पाप का क्षय होगा और पुण्य की वृध्धि  होगी।  
अपने मन को आप स्वयं दंड नहीं देंगे तो और कौन देगा?

पुत्र के दुराचरणो  को देखकर आत्मदेव को ग्लानि हुई।  उन्होंने सोचा कि  वह पुत्रहीन ही रहते तो अच्छा होता।  धुंधुकारी ने सारी  सम्पत्ति  का व्यय  कर माता-पिता को पीटने लगा।  
पिता के दुःख को देखकर गोकर्ण पिता के पास आया।  

गोकर्ण पिता को वैराग्य का उपदेश देता है।  
"यह संसार असार  और दुःख रूप तथा मोह को बांधने  वाला है। "
संसार को वंध्यासुत की उपमा दी है।  

संसार माया का पुत्र है और जब माया मिथ्या है तो संसार वास्तविक कैसे हो सकता है?

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