Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-27



गोकर्ण आत्मदेव से कहता है की तुम अब घरबार छोड़कर वनगमन करो, घर के मोह का अब त्याग करो।
सब कुछ समझ कर स्वयं छोड़ दो,नहीं तो काल बलांत  छुड़ाएगा।  
यह देह हड्डी,मांस और रुधिर का पिंड है।  इसे अपना मानना छोड़ दो। स्त्री-पुत्रादि की ममता छोड़ो।  
यह संसार क्षणभंगुर है।इसमें से किसी भी चीज को स्थायी समझकर उससे राग,मोह न करो।  
केवल वैराग्य के रसिक बनो।और भगवान  की भक्ति करो।

संसार मोह के त्याग के बिना भक्ति नहीं होती।  संसारासक्ति नष्ट न  होगी  तब तक  भगवदासक्ति  सिध्ध  न होगी।  संसार के विषय में मत फंसे  रहो।  ठाकुरजी के चरणो में रहो।  
यह देह अपना नहीं है,क्योकि इसे हमेशा नहीं रख सकोगे। तो फिर अपना है ही कौन?
पिताजी,अब बहुत गुजर गई और थोड़ी रही।  गंगा के किनारे जाकर ठाकोरजी की सेवा करो।
मन के विक्षेप होने पर उसे कृष्णा-लीला की कथा में लगा दो।  भावना रखोगे तो तो ह्रदय परिवर्तन होगा।  
सेवा और सत्कर्म में परदोषदर्शन  विघ्नहर्ता है।  अतः परदोषदर्शन का त्याग करो।
पिताजी अब तुम भगवन का आश्रय लेकर जिंदगी बिताओ।

भगवानमय जीवन जीने के लिए ध्यान,जप और पाठ अति आवश्यक है।  
उत्तम पाठ  के छः  अंग है - मधुरता,स्पष्ट अक्षारोच्चार,पदच्छेद का ज्ञान,धीरज,लय,सामर्थ्य और मधुर कंठ। पाठ  शांत चित्त से करो।  

आत्मदेव गंगा किनारे आकर मानसी सेवा करने लगे।  

चंचल मन को विवेकरूपी बोध से सम्भालो और
ध्यान मग्न रखो। संकल्प-विकल्प से मन को दूर रखो। मानसिक सेवा में मन की धारा  अखंड रहनी चाहिए।  
ऐसी सेवा दिव्य होती है।  उच्च स्वर से पाठ  करने से मन एकाग्र होता है, निरोध होता है।  
आत्मदेव भागवत  ध्यान तन्मय बने है।  

निवृति में सतत कर्म होना चाहिए। अन्यथा निवृति में भी पाप प्रगट होगा।
आत्मदेव दशम स्कंध का पाठ  करते है।  इसका नित्य पाठ  करने से वे सचमुच देव बने।  
आत्मा परमात्मा से मिलती है तो वह देह बनती है।  आज जीव और शिव एक हुए। जीव और शिव  हुआ।  
भगवत का जो आसरा ले, वह भगवन बनता है।  ईश्वर होता है,
उसे परमात्मा अनेक बार अपने से भी बड़ा बनाता है।

श्रीपरमात्मा के दो स्वरुप है - एक अर्चनास्वरूप और दूसरा नाम स्वरूप।  
श्रीभागवत भगवान  का नाम स्वरुप है।  सामग्री से जिसके अर्चना(पूजा) हो,वह अर्चनास्वरूप है।
नाम स्वरुप के बिना स्वरुप सेवा फलवती नहीं होती है.
स्वरुप सेवा कभी कभी ठीक तरह से भी नहीं होती।
उसका कारन यह है कि  मन की शुध्धि  नहीं हुई है।  
मनकी शुद्धि के बिना स्वरुप सेवा में आनंद नहीं मिलता है।  

सेवक जब तक संसार के साथ सम्बन्ध और माया रखता है,तब तक उसे स्वरुप सेवा का आनंद नहीं मिलता है।  यदि सेवा करनी ही है तो संसार का स्नेह,मोह छोड़ना  होगा।  
संसार के विषयों  में स्नेह करो तो विवेक के साथ करो।  

अग्नि वैसे तो सब कुछ भस्मी-भूत करती है,पर उसका यदि विवेक पूर्वक उपयोग किया जाये तो
अग्नि उपयोगी होती है।  अग्नि न हो तो मनुष्य का पोषण नहीं हो सकता।  

मनुष्य इस संसार में जब तक अपने शरीर के प्रति आसक्त है तब तक वह इस संसार को नहीं  छोड सकता  .



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