Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-28


जो मन माया का स्पर्श करता है वह मन मन-मोहन की सेवा में नहीं जा सकता।  मन तो बार बार  माया का विचार करता है।  अतः वह मलिन होता है।नाम सेवा मन की शुध्धि के लिए ही है।
जब तक स्वरुप सेवा में मन एकाग्र न हो- तब तक नाम सेवा करो।  

स्वरुप सेवा मे आनंद नहीं आता है,क्योकि मन व्यग्र है,चंचल है।  अपना मन ईश्वर को छोड़कर बार-बार विषयों  की ओर  जाता है।  मनुष्य का मन संसार-व्यहवार के साथ इतना तदृप्त हो जाता है कि  जिसके कारन वह पाप करता है और उसे अपने पापो का ख्याल भी नहीं रहता है।  

स्वरुप सेवा करते-करते ह्रदय पिघले,आँखे गीली हो,आनंद हो और ह्रदय में सात्विक भाव जगे तो मानो कि  सेवा सफल हुई।  जीव शुध्ध  होकर परमात्मा की सेवा करे तो श्रीठाकोरजी प्रेम से प्रसन्न होते है।  

मन में अनेक जन्मों  का मैल  भरा होता है।  और स्वरुप सेवा में मन की शुध्धि  अति आवश्यक है।  
मन को शुध्ध  करने के लिए नाम सेवा आवश्यक है। मन की अशुध्धि  नाश करता है श्रीमद्भागवत।  
कलियुग में नाम सेवा प्रधान है। श्रीमद्भागवत भगवान  का ही नाम स्वरुप है। नाम ही ब्रह्म है।  नाम ही परमात्मा है। ईश्वर तो अदृष्ट है। उनके साथ स्नेह करना कठिन है। नाम स्वरुप तो स्पष्ट दीखता है।  
जिसका प्रत्यक्ष दर्शन न हुआ हो उसके नाम को पकड़ोगे तो वह अवश्य दृष्टिगोचर होगा।  

ईश्वर का स्वरुप सबके लिए अनुकूल और सुलभ नहीं है परन्तु नामस्वरूप सुलभ है।  
ज्ञानी पुरुष नाम में निष्ठां रखते है। वे नाम का आश्रय लेते है।  नाम ही ईश्वर का स्वरूप है।  
श्रीरामजी ने तो कुछ ही जीवो का उध्धार  किया था परन्तु उनके बाद उनके नाम से अनेको का उध्धार  हो गया।  श्रीकृष्णजी जब पृथ्वी पर विराजमान थे तब जतने जीवों  का उध्धार  हुआ था
उसकी तुलना में उनके नाम से अनगिनत लोग संसार-सागर को पर कर गए।  

बड़े से बड़ा पाप कौन सा है?
ईश्वर के नाम के प्रति निष्ठां का अभाव।  नाम साधन सरल है।  श्रीभागवत भगवन का नाम स्वरुप है।  श्रीमद्भागवत का आश्रय ही नाम का आश्रय है।  
जो भागवत  का आश्रय लेता है वह भगवान बनता है।  
आत्मदेव श्रीमद्भागवत का आश्रय लेकर दशम स्कंध का पाठ  करते थे और उन्हें मुक्ति मिली थी।  

यदि संस्कृत का ज्ञान न हो तो प्रतिदिन दशम स्कंध,विष्णु सहस्त्र नाम और शिव महिम्न  स्तोत्र का  पाठ करो,पाठ  अर्थ और ज्ञान के साथ करो।  अर्थज्ञान बिना किया पाठ  अधम पाठ  है।

भगवान जल्दी प्राप्त और कृपा नहीं करते है,क्योकि आप इसके लिए कष्ट सहन नहीं करते है।
जीव कष्ट सहन करने से कतराता है।  भगवान की कृपा के लिए दुःख सहन करो।
जो स्वेच्छा से कष्ट सहन करते है उसे यम  दुखी नहीं करते।  

आत्मदेव आसन  लगाकर दस-बारह घंटे बैठते थे।  आसन  पर शान्त  चित्त से बैठो।  
ज्ञानी को जो आनंद समाधि  में मिलता है वह आनन्द आपको भी कथा में मिलेगा।
सोचो कि  मेरा मन ईश्वर से तदाकार हो गया है।  

दृश्य से दृष्टि हट जाये और दृष्टा में स्थिर हो तो मन का निरोध होगा और आनन्द प्रगट होगा।  


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