Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-29



गोकर्ण को लगा की धुंधुकारी का व्यहवार उसे भी विक्षेप रूप होगा तो वह भी वन में चला गया।
इधर धुंधुकारी वेश्याओ को प्रसन्न रखने के लिए चोरी  करने लगा।  
सूतजी सावधान करते है।  
जीव प्रत्येक इन्द्रियों का स्वामी है। परन्तु इन्द्रियाँ जीव पर प्रभुत्व जमा ले और मनुष्य इन्द्रियों के आधीन हो जाये तो जीवन कलुषित हो जाता है।
मन ईश्वर के साथ मैत्री करे तभी सुखी होता है। ईश्वर  से अलग होने पर वह दुःखी होता होता है।  
जीव मात्र मनसुखा  है।  

धुंधुकारी अनिष्ट मार्गो से अर्थोपार्जन कर रहा है।  उसने राजा के महल से अलंकार चुराकर वैश्याओ को दिए।  वेश्याएं  सोचती है कि  यदि यह जीवित रहेगा तो हम किसी दिन पकड़ी जाएँगी और राजा हमारा  धन छीनकर हमे दंड देंगे. इससे तो हम धुंधुकारी को मार डाले  तो अच्छा है।  ऐसा सोचकर उन्होंने धुंधुकारी को रस्सी से बाँधा  और उसके गले में फाँसी  का फंडा डाला। फिर भी धुंधुकारी मरता नहीं है।

अति पापी की मृत्यु जल्दी नहीं होती।  वेश्याओ  ने जलते हुए  अंगारे उसके मुख में भर दिए और मार डाला।  
पाँच  इन्द्रियाँ ही अंतकाल में जीव को मारती है ,कष्ट देती है और 
उस समय जीव तड़पता है और छटपटाता  है।  
और उसके बाद वेश्याओ  ने धुंधुकारी के शरीर को जमीन  में गाढ़  दिया।  
उसके शरीर का अग्निसंस्कार भी वेश्याओ  ने नहीं किया।  

जिसके शरीर को देखने मात्र से घृणा हो जाये वही  है धुंधुकारी।  
धुंधुकारी अपने कुकुर्मो के कारण  भयंकर प्रेत बनता है।  
पापी हे प्रेत बनता है।  पापी तो यमपुरी में भी नहीं जा सकता।  

गोकर्ण ने धुंधुकारी की मृत्यु के समाचार सुने।  उसने गयाजी जाकर धुंधुकारी की श्राध्द -क्रिया की  .

गया श्राध्द श्रेष्ठ  है। वहां  विष्णुपाद है।  इसकी कथा इस प्रकार है।  
गयासुर नाम का एक राक्षस था जिसने तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया।  ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा। तब उसने ब्रह्माजी को कहा कि  आप क्या वरदान देंगे। आपको कुछ मांगना हो तो मुझसे मांगिये।
उसकी तपस्या से देवता भी भयभीत हो गए कि  यह असुर कैसे मरेगा?
ब्रह्माजी ने सोचा कि  इसके शरीर पर दीर्घकाल तक यज्ञ करने पर ही मरेगा।
अतः ब्रह्माजी ने यज्ञ के लिए उससे उसका शरीर ही माँगा।  यज्ञकुण्ड उसकी छाती पर ही बनाया गया।  
सौ  साल तक यज्ञ चलता रहा फिर भी गयासुर नहीं मरा।
यज्ञ की पूर्णाहुति पर वह उठके चलने लगा जिससे ब्रह्माजी चिन्तातुर और भयभीत हुए।
उन्होंने भगवान  का स्मरण और नारायण का ध्यान किया।
नारायण भगवान प्रगट हुआ और गयासुर की छाती पर दोनों चरण रखे।
गयासुर ने मरते समय भगवान से वर  माँगा  कि  इस गया तीर्थ में जो  कोई श्राध्द  करे उसके पितृगण सद्गति प्राप्त करे।  भगवान ने उसे वर  दिया कि जो तेरे शरीर पर पिंडदान करेगा उसके पित्तरों की मुक्ति होगी।  भगवानने गयासुर को मुक्ति दी।  

भगवान के वरदान के कारण  गयाजी में पित्रुश्राध्ध करने वाले पित्तरों की मुक्ति होती है।  


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