उन्होंने मृत्यु को चौदा बार वापस लौटाया था।
उन्हें प्रतिष्ठा का मोह था। उन्होंने संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति सुनी और उनके प्रति मत्सर (ईर्ष्या) करने लगे।
उस समय ज्ञानेश्वर की आयु सोलह वर्ष की थी। उन्होंने सोचा की ज्ञानेश्वर को पत्र लिखे।
किन्तु पत्र में सम्बोधन क्या किया जाये?
ज्ञानेश्वर उनसे छोटे थे पर महाज्ञानी थे। इसलिए बिना कुछ लिखे ही चांगदेव ने पत्र भेज दिया।
संत की भाषा संत जान सकते है। वे कोरा पत्र भी पढ़ लेते है।
मुक्ताबाई ने पत्र का उत्तर दिया। १४०० साल की तेरी आयु हुई,फिर भी तू कोरा ही रह गया।
चांगदेव ने सोचा कि ऐसे ज्ञानी पुरुष से मिलना ही चाहिए।
अपनी सिध्दियों के प्रदर्शन के लिए उन्होंने बाघ पर सवारी की और सर्प की लगाम बनाई
और इस प्रकार वे ज्ञानेश्वर से मिलने के लिए आ रहे है।
इस तरफ ज्ञानेश्वरको पता चला तो उन्होंने सोचा कि- इस बूढ़ेको अपनी सिध्दियों का अभिमान हो गया है।
चांगदेव ने अपनी सिध्दियों के अभिमान के कारन ज्ञानेश्वर को पत्र में”पूज्य” शब्द से सम्बोधित नहीं किया था।
ज्ञानेश्वर ने सोचा कि चांगदेव को कुछ पाठ पढ़ाना चाहिए। उस समय ज्ञानदेव चौके पर बैठे हुए थे।
उन्होंने चौके को चलने की आज्ञा दी। पत्थर का चौका चल दिया।
चौके को चलता हुआ देखकर चांगदेव का अभिमान नष्ट हुआ।
चांगदेव ने महसूस किया की मैंने तो हिंसक पशु को वष में किया जब कि
ज्ञानेश्वर के पास तो ऐसी शक्ति है,जो जड़ पदार्थ को भी चेतन बना देती है।
दोनों का मिलन हुआ। चांगदेव ज्ञानेश्वर के शिष्य बन गए।
यह दृष्टान्त सिखाता है कि
हठयोग से मन को नियंत्रित करने की अपेक्षा प्रेम से मन को बस में करना उत्तम है।
चांगदेव हठयोगी थे।हठ-बलात्कार से उन्होंने मन को बस में किया था।
योग मन को एकाग्र कर सकता है,किन्तु ह्रदय को विशाल नहीं कर सकता।
यही कारण है कि चांगदेव ज्ञानेश्वर से ईर्ष्या करते थे।
ह्रदय को विशाल करती है भक्ति। भक्ति से ह्रदय पिघलता ह,विशाल भी होता है।
मत्सर करने वालो के तो इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ते है। मन में मत्सर मत रखो।
मन से मत्सर निकाल दोगे तो मनमोहन का स्वरुप मन में सुद्रढ़ होगा।
कथा सुनकर उसे जीवन मे चरितार्थ करने वाले लोग बहुत कम होते है।
कथा सुनो और उसके सिध्धान्तों का जीवन में आचरण करो।
इसलिए कहा गया है कि जब सुकृति पुरुष उन्हें (कथाको) सुनने की इच्छा करता है
उसी समय ईश्वर उसी के ह्रदय में आकर बन्दी हो जाते है।
भागवत कथा का श्रोता निष्काम और निर्मत्सर बन जाता है।
मनुष्य जब तक निर्मत्सर न बने तब तक उसका उध्धार नहीं होता।
जैसी भावनाऍ दूसरों के लिए रखोगे,वैसी ही भावना वे आपके लिए रखेंगे।
दूसरों के साथ वैरभाव करने वाला व्यक्ति अपने साथ ही वैरभाव करता है,
क्योंकि सबके ह्रदय में ईश्वर का वास है।