शौनकजी ने सूतजी से पूछा कि जीवमात्र का कल्याण कैसे हो सकता है?
आप कल्याण का सरल और सुलभ मार्ग हमें बताइये।
कलियुग के शक्तिहीन मनुष्य भी जिसका उपयोग कर सके,ऐसा कोई साधन बताइये।
कलियुग के मनुष्य मंदबुध्दि और भोगी होंगे - इसलिए कठिन मार्ग अपना नहीं सकेंगे।
कलियुगमें -मनुष्य,खुदको प्रवीण समजता है,किन्तु,
संसार के विषयों के पीछे जो लगा रहे उसे प्रवीण कैसे कहा जाये?
शास्त्र तो-कहता है कि सौ काम छोड़कर भोजन करो,हजार काम छोड़कर स्नान करो,
लाख काम छोड़कर दान करो और करोड़ काम छोड़कर प्रभु का स्मरण करो,ध्यान करो,सेवा करो।
कलियुगमें तो मनुष्य,अपना सब काम खत्म करके रातको माला करने बैठ जाता है,
किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए, प्रभु नाम का जप करने के बाद सब काम करो।
करोड़ काम को छोड़कर भगवान का स्मरण करो।
कलियुग के मनुष्य जो काम करना है वह नहीं करते
और जिसे नहीं करना है वह पहले करते है। इसलिए व्यासजी ने उन्हें मंदबुध्दि कहा है।
शौनकजी, सूतजी से पूछते है कि-
कलियुग में जब अधर्म बढ़ता है तब धर्म किसका आश्रय लेता है?
(प्रथम स्कंध का प्रथम अध्याय “प्रश्नाध्याय “ कहलाता है। )
शौनकजी, सूतजी से कहते है कि-
प्रभु की कृपा के कारण ही आप हमे मिले है।
समुद्र पार करने वाले को जैसे नाविकका आसरा है,वैसे आप हमे मिले है। आप हमारे केवट है।
कुछ ऐसी रीति से कथा सुनाए कि जिससे हमारे ह्रदय द्रवित हो जाये।
मनुष्य को जब, परमात्मा से मिलने की आतुरता होती है,तब संत का मिलन होता है।
जैसे -अतिशय भूख लगी हो,और भोजन मिल जाय,तो भोजन -स्वादिष्ट और अच्छा लगता है।
ऐसे-मनुष्य को परमात्मा-मिलन की भूख जब तक न लगे,तब तक संत भी नहीं मिलते है।
और -तब तक संत मिलने परभी उसके प्रति सद्भाव नहीं जागता।
इसका कारण यह है कि जीव को भगवत-दर्शन की इच्छा नहीं हुई है।
वक्ता (संत) और श्रोता के अधिकार भी सिध्द होने चाहिए।
कथा-श्रवण के तीन अंग है:-
(१) श्रध्धा -श्रोता मन एकाग्र करके श्रध्धा से कथा सुने।
(२) जिज्ञासा -श्रोता को जिज्ञासु होना चाहिए। उसके अभाव से मन एकाग्र नहीं होगा और
कथा की कोई असर नहीं होगी। और कोई विशेष लाभ भी नहीं होगा।
(३) निर्मत्सरता - श्रोता के मन में जगत के किसी भी जीव के प्रति मत्सर (इर्षा) नहीं होना चाहिए।
कथा में नम्र और दीन होकर जाना चाहिए। पाप को छोड़कर भगवान से मिलने की
तीव्र आतुरता की भावना से कथा श्रवण करोगे तो भगवान के दर्शन होंगे।