एक महात्मा रामायण की कथा सुना रहे थे।
कथा समाप्त होने पर किसी श्रोता ने महात्मा से पूछा कि -
कथा तो सुनी पर मुझे यह समझ में नहीं आया कि राम राक्षस थे या रावण।
महात्मा ने उत्तर दिया कि न तो राम राक्षस थे या रावण।
राक्षस तो मै हूँ कि जो तुझे कुछ भी समझा न सका।
कथामे श्रद्धा और जिज्ञासा रखकर,और निर्मत्सर होकर -
परमात्मा की कथा बार बार सुनोगे तो प्रभु के प्रति प्रेम-भाव जागेगा।
शौनक मुनि ने सूतजी से कहा-
भागवत कथा में हमे श्रध्धा है और आपके प्रति आदर है। अनेक जन्मों के पुण्यों का उदय होने पर ही
अधिकारी वक्ता के मुख से कथा सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
कथा का श्रवण भी एक प्रकार की भक्ति ही है।
रुक्मणी ने अपने पत्र में लिखा था कि -
"तुम्हारी कथा सुनकर ही तुमसे विवाह करने की इच्छा हुई थी।"
भगवान के गुण सुनने से (श्रवण से) उनके प्रति प्रेम-भाव उत्पन्न होता है।
कथा सुनने वाला -श्रोता -और कथा करनेवाला -वक्ता - दोनों विनयी होने चाहिए।
सूतजी विनयसे कहते है -आप सब ज्ञानी हो। प्रभु-प्रेम में पागल हो,
परन्तु मेरा कल्याण करने लिए प्रश्न पूछते हो। कथा सुनाकर तो मै अपनी वाणीको पवित्र करूँगा।
शिवमहिम्न स्तोत्र में पुष्पदंत ने भी विनय से कहा है कि -
शिव तत्वका वर्णन कौन कर सकता है? मै तो अपनी वाणी को पवित्र करने चला हूँ।
आरम्भ में सूतदेवजी शुकदेवजी को वन्दन करते है।
फिर नारायण को वन्दन करते है। "नारायणम नमस्कृत्य।"
भारत के प्रधान देव नारायण है।
प्रभु के सभी अवतारों की समाप्ति हुई है. भगवान श्रीकृष्ण भी गोलोक में पधारे थे ।
किन्तु नारायण की कभी भी समाप्ति नहीं हुई है और न होगी।
भारत की प्रजा का कल्याण करने के लिए वे आज भी तपश्चर्या कर रहे है।
श्रीशंकराचार्यजी को जब नारायण के दर्शन हुए तो उन्होंने कहा कि -
मै तो योगी हूँ इसलिए दर्शन कर सका किन्तु कलयुग की प्रजा भी आपके दर्शन कर सके,ऐसी कृपा कीजिये। तब, भगवान ने उनको बद्रीनारायण के नारद कुण्ड में स्नान करने का आदेश दिया
और कहा कि - वहाँ से तुम्हे जो मूर्ति मिलेगी,उसकी स्थापना करना।
श्री नारायण-प्रभु की अग्न-अनुसार- बद्रीनारायण की स्थापना शंकर स्वामी ने की है।
वैसे तो,मन से प्रभु का मानस दर्शन का भी,पुण्य बहुत लिखा गया है।
इसीलिए, यदि हम बद्रीनाथ ना जा शके तो-हम नारायण को मन से भी प्रणाम कर शकते है।
फिर भी कहते है कि- जो जाये बद्री, उसकी काया सुधरी।