बद्रीनारायण में लक्ष्मीजी की मूर्ति मंदिर के बाहर है। वो बताता है कि-
तपस्वी को तपश्चर्या में स्त्री,द्रव्य,बालक का संग बाधादायी है।
इसी तरह तपस्वनी स्त्री के लिए भी पुरुष का संग त्याज्य है।
नारायण ने लक्ष्मीजी से कहा कि तुम बाहर बैठकर ध्यान करो,और मै अंदर बैठकर ध्यान धरूंगा।
एक बार एक भक्त ने बद्रीनारायण के पुजारी से पूछा कि-
इतनी कड़ाके की सर्दी में चन्दन से ठाकुरजी की पूजा क्यों करते हो ?
पुजारी ने उत्तर दिया-अपने ठाकुरजी कठोर तपश्चर्या करते है, जिससे उनकी शक्ति बढ़ती है
और ठाकुरजी को बहुत गर्मी लगती है सो चन्दन से पूजा की जाती है।
नारायण को वंदन करने के बाद-
सूतजी सरस्वती और व्यासजी को वन्दन करके कथा का आरंभ करते हैं -
जिस धर्म से मनुष्य के दिल में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति जागे,वो ही धर्म श्रेष्ठ है।
भक्ति भी ऐसी होनी चाहिए कि जिसमे किसी भी प्रकार की कामना न हो।
निष्काम एव् निरन्तर भक्ति से ह्रदय आनंद रूप परमात्मा की प्राप्ति करके कृत्यकृत्य हो जाता है।
सूतजी कहते है- जीवात्मा अंश है और परमात्मा अंशी। अंशी से अंश अलग हो गया इसलिए वह दुःखी है।
अंशी अर्थात परमात्मा में मिल जाने पर ही जीव कृतार्थ होता है।
परमात्मा कहते है - "ममैवांशो जीव लोके।" - तू मेरा अंश है,तू मुझसे मिलकर कृतार्थ होगा।
नर,नारायण का अंश है।
अंश(नर) अंशी (नारायण) में जब तक न मिल जाये, तब तक उसे शान्ति नहीं मिलेगी।
मनुष्य को निश्चय करना चाहिए- कि - "अपने परमात्मा का आश्रय लेकर उनके साथ मुझे एक होना है,"
किसी भी प्रकार से ईश्वर के साथ एक होना है।
ज्ञानी ज्ञान से अभेद सिध्ध करता है।
तो वैष्णव महात्मा प्रेम द्वारा अद्वैत (अभेद) सिध्ध करते है।
प्रेम की परिपूर्णता अद्वैत में ही है।
भक्त और भगवान अंतमे तो- एक ही हो जाते है। जैसे-गोपी और श्री कृष्ण एक हो गए थे।
कई लोग सोचते है कि-जीव और ईश्वर कैसे अलग हो गए? किन्तु,इसकी चर्चा करने की जरुरत नहीं है।
ईश्वर का जीव से वियोग हुआ यह सत्य है। यह वियोग कैसे और कब से हुआ ?
इसके विवाद में समय का व्यय करने की कोई आवश्यकता नहीं है और इससे कोई लाभ भी नहीं है।
जैसे-धोती पर दाग लगने पर -वह कब और कैसे लगा,इस पर सोचते रहने से वह दाग दूर नहीं होगा।
किन्तु, उस दाग को दूर करने पर ही धोती स्वच्छ होगी।
इस तरह ईश्वर से मिलने का प्रयत्न करें ,यही इष्ट है।