सखी सोचती है कि - "मै वहां मिलने गई और मेरे मिलने से मेरे ठाकोरजी को कुच्छ कष्ट हुआ तो?
वो तो राजा है,और यदि -उनको कुच्छ लज्जा हुई कि -मै इस गाँव की ग्वालिन से मै खेलता था तो?
नहीं,मुझे मथुरा नहीं जाना है।
मेरे प्रेम में कुछ-न-कुछ न्यूनता ही रह गई है। इसलिए वह मुझे छोड़कर चले गए है।
मेरा प्रेम यदि सच्चा है तो वे अवश्य गोकुल लौटेंगे। उस समय तक मै विरह-दुःख सहन करती रहूंगी। "
इसलिए श्रीकृष्ण कहते है कि - मुझे गोकुल में जो आनंद गोपियों से मिला है-वह द्वारिका में नहीं है।
गोपियों का प्रेम निष्काम है। भगवान का जो आश्रय लेता है वह निष्काम बनता है।
गोपियों की ऐसी निष्काम भक्ति से परमात्मा गोपियों के ऋणी हुए। गोपी प्रेम की महिमा दर्शनीय है।
किसका निष्काम प्रेम श्रेष्ठ है? रानियाँ का कि गोपियाँ का?
वो दिखा ने के लिए-श्रीकृष्ण ने एक बार बीमार होने का नाटक किया। कोई भी औषधि सफल नहीं हुई।
तब नारदजी वह पधारे-उन्होंने कहा-कि-
जो कोई वैष्णव-भक्त अपनी चरणरज दे तो श्रीकृष्ण की बीमारी दूर हो सके।
किन्तु कोई अपनी चरण-रज देनेको तैयार नहीं हुआ.
तब-राणी यों से चरण-रज मांगी। तो उन्होंने कहा कि -"हम नहीं देंगे।
ये तो महापाप है और हमे नरक में जाना पड़ेगा। " कोई भी तैयार नहीं हुआ।
अन्त में बात गोपीयी तक पहुँची।
गोपियों ने कहा कि- "अगर हमारी चरणरज से वे ठीक हो सकते है तो हम देने के लिए तैयार है।
हम नरक यातना भी भुगत लेंगे।" उन्होंने अपनी चरणरज दी।
श्रीकृष्ण की बीमारी दूर हो गई। और ऐसे सच्चे निष्काम प्रेम की परीक्षा भी हो गई।
भागवत का फल है निष्काम भक्ति।
गोपियों जैसी निष्काम भक्ति की आदत डालो। भक्ति से मुक्ति मिलती है।
भक्ति के बिना ज्ञान और वैराग्य प्राप्त नहीं होता।
बिना ज्ञान की भक्ति अंधी है और बिना भक्ति के ज्ञान पंगु है।
भागवत सब के लिए है। वेदांत सबके लिए नहीं है। वेदांत का अधिकार सबको नहीं दिया गया।
जिसको ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा हो,उसी के लिए वेदान्त है।
जिसने षटसम्पति की प्राप्ति की हो, वही वेदांत का अधिकारी है। किन्तु भागवत तो सभी के लिए है।
भागवत का अधिकार वैसे तो सभी के लिए ही बताया गया है,फिर भी कहा है की-
शुध्ध अंतःकरण वाले पुरुषों के जानने के योग्य -परमात्मा का निरूपण इसमें किया गया है।
निर्मत्सर होकर कथा सुनो। मत्सर (ईर्ष्या) सबसे बड़ा शत्रु है। वह सबको सताता है।
ज्ञानी और योगी दोनों को मत्सर परेशान करता है।