Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-41


गोपियों ने भगवान से कुछ  नहीं माँगा था।
उनकी भक्ति निष्काम थी। अतः भगवान गोपियों के ऋणी थे।
गोपी गीत में भी वे भगवान से कहती है की हम तो आपकी निःशुल्क क्षुद्र दासियाँ  है। अ
र्थात निष्काम भाव से सेवा करने वाली दासियाँ  है।

इसी तरह कुरुक्षेत्र में भी जब वे (गोपियाँ) भगवान से मिलती है तो
वहाँ  भी कुछ  नहीं  मांगती है। वे तो केवल इतनी इच्छा करती है -
"इस -संसाररूपी कुएँ  में गिरे हुओं  को,
उसमे से बाहर  निकलने के अवलम्बन-रूप आपके "चरणकमल",
घर में रहते हुए  भी हमारे मन में  सदा बसे  रहे। "

जब उद्धवजी,श्रीकृष्ण का  संदेश लेकर गोकुल आये थे,तब-
एक सखी (गोपी) उद्धवजी से पूछती है कि - तुम किसका संदेश लेकर आये हो? श्री कृष्णका?
वे तो यही उपस्थित है। लोग कहते है की वे मथुरा गए है पर यह बात गलत है।
मेरे ठाकोरजी  हमेशा मेरा साथ ही है। चौबिस  घंटे का हमारा उनके साथ संयोग है।

गोपियों का प्रेम शुध्ध  है। वे जब भी भगवान का स्मरण करती है,ठाकोरजी  को प्रगट होना ही पड़ता है।
गोपियों की भक्ति इतनी सत्वशील है की भगवान खींचे हुए  चले आते है।
ठाकोरजी को साथ रखोगे तो जहॉ  भी जाओगे,भक्ति कर सकोगे।
इसीलिए तुकाराम कहते है कि  
"मुझे चाहे भोजन न मिले,परन्तु हे विट्ठलनाथ ,मुझे एक भी क्षण तुम अपने से अलग न करना। "

गोपियों का आदर्श आँख के सामने रखो और भगवन की भक्ति करो।
सुदामा की निष्काम भक्ति को याद रखकर प्रभु की भक्ति करो। सुदामा और गोपियों जैसी भक्ति सीखो।
तुम अपना सर्वस्व भगवान को अर्पण करो। ऐसा होने पर भगवान  भी अपना सर्वस्व तुम्हे देंगे।

निष्काम भक्ति ही भागवत  का मुख्या विषय है। निष्काम भक्ति ही श्रेष्ठ भक्ति है।
निष्काम भक्ति का श्रेष्ठ दृष्टान्त  है श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों की निष्काम ममता,निष्काम प्रेम।
गोपियाँ  तो मुक्ति की भी इच्छा नहीं रखती थी। श्रीकृष्णका सुख ही अपना सुख है,ऐसा गोपियाँ  मानती थी।

एक सखी (गोपी) ने उद्धवजी से कहा कि -
"श्रीकृष्ण के वियोग में हमारी कैसी दशा है,वह आपने देखी।  
मथुरा जाने पर श्रीकृष्ण से कहना कि  यदि आप मथुरा में सुख से रहते है तो
हमारे सुख के लिए व्रज में आने का कष्ट न करे।
हमारा प्रेम अपने सुख के लिए नहीं है,किन्तु श्रीकृष्ण को ही सुखी करने के लिए है।
श्रीकृष्ण के वियोग में हम दुखी है और विलाप करती हैं
परन्तु हमारे विरह में यदि वे मथुरा में सुख से रहते है तो वे सुखी रहे।
हमारे सुख के लिए वे यहाँ न आये। यदि अपने सुख के लिए वह यहाँ आना चाहे तो अवश्य पधारें। "

शांडिल्य मुनि ने अपने भक्ति सूत्र में लिखा है -
 "तत्सुखे सुखित्वम् प्रेमलक्षणम् !"
दूसरों  के सुख में सुख का अनुभव करना ही सच्चे प्रेम का लक्षण है।



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