Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-31



बाँस  वासना का रूप है।  वासना से ही जीव में जीवभाव आया है। वह निष्काम से काम बना।  
वासनाओं  की ग्रन्थियां जब तक न छूटे,अब तक जीवभाव निर्मूल नहीं होता।  

श्रीभागवत की कथा के श्रवण से वासना की हरेक ग्रंथि टूटती  है।
प्रभु से प्रेम बढे तो आसक्ति की ग्रन्थियां टूटने लगेगी।
श्रीभगवान के नाम का जप करो- और
वही  (इश्वर) एक सत्य है, ऐसा मानकर उसका नित्य स्मरण करो तो वासनाओं  की ग्रंथियाँ  छूट  जाएगी।  

एक शेठ  का नियम था कि  वह बारह वर्ष से कथा नियमित सुनता था।
एक ब्राह्मण रोज कथा करने के लिए आता था।  
एक दिन शेठके बाहर  जाने का प्रसंग उपस्थित हुआ।  
कथा श्रवण के नियम को भंग  कैसे किया जाये।  

उसने ब्राह्मण को कहा की- कल मै  कथा नहीं सुन सकूँगा। मेरे नियम का क्या होगा?
ब्राह्मण ने कहा कि  तुम्हारा पुत्र कथा सुनेगा तो  चलेगा।
शेठने  पूछा कि  कथा  सुनने से वह वीतरागी बन गया तो?
ब्राह्मण ने कहा-बारह साल से तुम कथा सुनते आये हो,फिर भी तुम्हे वीतराग न हुआ
तो फिर एक दिनमें  तुम्हारा पुत्र कैसे वीतरागी हो जायेगा?
यजमान कहता है,”हम तो रोज कथा सुनते है किन्तु मन की गाँठ  नहीं छोड़ते।”

ऐसा नहीं करना चाहिए-कथा सुनकर मन की गाँठ  छूटनी  चाहिए।
जीव जब तक संसार सुख का त्याग मन से न करे,तब तक भक्ति सिध्द नहीं होती।
भोग का त्याग भी नहीं करना है और भक्ति भी करनी है। यह कैसे हो सकता है।

धीरे धीरे मन को,स्वभाव  को सुधारना चाहिये। स्वाभाव के सुधरने पर ही भक्ति सिध्द होती है।  
ज्ञान और वैराग्य को पुष्ट करने के लिए ही यह भागवत कथा है।  

परमात्मा के चरणों  का आसरा लेकर धुंधुकारी देवता जैसा बना।
धुंधुकारी कहता है कि  इस कथा से ही मेरे जैसे पापी को भी परम गति प्राप्त हुई।  
धुंधुकारी को लेने पार्षद विमान लेकर आये।
गोकर्ण ने पार्षदों  से पूछा-केवल  धुंधुकारी  को लेने विमान क्यों आये?

पार्षद कहते है की धुंधुकारी एक आसन पर बैठता था,और रोज उपवास रखके,कथाका श्रवण करता था,
और कथा सुन ने के बाद कथा का मनन भी करता था।

प्रभु के चरण में-मन में निवास करना ही उपवास है।
उपवास के समय कुछ भी खाने पर पूर्ण उपवास नहीं होता है।
कथा धुंधुकारी की तरह सुननी चाहिए।  उसने कथा का मनन और निदिध्यासन किया,उसे मुक्ति मिली।

श्रवण,मनन और निदिध्यासन से ज्ञान दृढ होता है।  
बिना दृढ़ता का ज्ञान व्यर्थ है।  उसी प्रकार लापरवाही से किया गया श्रवण भी व्यर्थ ही है।  
सन्देहयुक्त मंत्र व्यर्थ है।  व्यग्र चित्त से किये गए जप का कोई फल नहीं मिलता।
संदेह करने से मन और चित्त के इधर-उधर भटकने से जप फलदायी नहीं होता।

कथा सुनते समय तन,मन,धन  और घर की सभानता भूल  जानी चाहिए।
देह-देहात्मक  विस्मृति से और तन्मयता से कथा सुननी चाहिए।

मै  ईश्वर के साथ तन्मय होना चाहता हूँ ,ऐसी भावना रखो।

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