Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-33


शुभ मुहूर्त में कथा का आरम्भ होना चाहिए।
कथा के वक्ता के लिए भी कुछ जरूरी लक्षण बताय गए है।
पहला है विरक्तभाव। श्रीशुकदेवजी जगत से अस्पृष्ट नहीं थे,फिर भी वे निर्विकार थे।
हम भी जगत में रहते है,देखते है परन्तु हमारी आँखे विकाररहित नहीं है।
श्रीशुकदेवजी ब्रह्मदृष्टि वाले थे। प्रत्येक स्त्री-पुरुष को वे भागवतभाव से देखते थे।

सूतजी सावधान करते है।
वैराग्य का क्या अर्थ है?
उपभोग के लिए अनेक पदार्थ सुलभ होने पर भी मन उनके प्रति आकर्षित न हो,वही वैराग्य है।
जगत का त्याग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु भोग द्रष्टि  से देखने की वृति का त्याग करना है। अपनी विकारी द्रष्टि  को बदलना है। जगत को काम द्रष्टि  और भोग द्रष्टि  से मत देखो।
जब तक द्रष्टि  का दोष नहीं जाता,तब तक हमारी द्रष्टि  देवदॄष्टि  नहीं होगी।
उपदेशकर्ता ब्राह्मण अर्थात्त ब्रह्मज्ञ  होना चाहिए। वह धीर,गंभीर और द्रष्टांत कुशल होना चाहिए।

वक्ता अति निःस्पृही होना चाहिए। द्रव्य का मोह तो छूट  जाता है,परन्तु कीर्तिका मोह छोडना बहुत कठिन है। जीव कीर्ति का मोह रखता है और वह भक्ति नहीं कर सकता।
जब भी कथा श्रवण करे, संसार से निर्लिप्त होकर करे। कथा में बैठकर भी घर-बार और धंधे की बात सोचने से मन विकृत होता है। अन्य सभी चिंता छोड़कर कथा में बैठो।

वक्ता  और श्रोता को चाहिए कि  वे आँख,मन,वाणी,कर्म और प्रत्येक इन्द्रिय से ब्रह्मचर्य का पालन करे।
मन स्थिर करने के लिए ऊर्ध्वरेता होना जरुरी है।
क्रोधित होने से पुण्य का क्षय होता है। वक्त और श्रोता क्रोध न करे।
विधिपूर्वक कथा श्रवण करने से उसका फल प्राप्त होता है।
प्रेमसे कथा का श्रवण करने वाले वैष्णव यमपुरी में नहीं जाते। वे वैकुंठ में जाते है।
भागवत  की कथा का श्रवण जो प्रेम से करता है,उसका सम्बन्ध भगवान से जुड़ता है।
भागवत  भगवान का साक्षात स्वरुप हैं।

वेदान्त में अधिकार और अधिकारी की अच्छी चर्चा की गई है। सबको वेदान्त का अधिकार नहीं है। नित्यानित्य-वस्तु-विवेक,शमदमादि,षड्सम्पति,विराग -आदि के बिना वेदांताधिकार प्राप्त नहीं हो सकता।

वेदों  के तीन विभाग किये गए है। कर्मकांड,ज्ञानकांड,उपासनाकांड।
उसी प्रकार उनके अधिकारी भी निश्चित किये गए है। किन्तु-भागवत  हर किसी के लिए है।
भागवत  का आश्रय लोगे तो वह तुम्हे भगवान की गोद  में बिठायगा। वह तुम्हे निर्भय और निःसंदेह करेगा।

भागवत  के श्लोक १८००० हैं
खानपान,व्यहवार,पत्रलेखन आदि सभी कार्यों  की विधि भागवत  में बताई गई है।
ऐसे ग्रन्थ का अवलम्बन करने से सभी प्रकार ज्ञान प्राप्त होगा।
यह ग्रन्थ पूर्ण है। भागवत नारायण का स्वरुप है।
जगत और ईश्वर,जीव और जगत,जीव और ईश्वर आदि से सम्भन्धित  ज्ञान भागवत  से प्राप्त होगा।

श्रवण की गई बातों  का मनन करो और उसे व्यवहार में कार्यान्वित करो।
केवल ज्ञान व्यर्थ है। जीवन-व्यवहार के काम में लाया हुआ ज्ञान ही सार्थक होगा।

प्रभु के दिव्य  गुण  जीवन में उतारो। पूर्व जन्म का विचार न करो।
जनकराजा ने याज्ञवलक्य  ऋषि से पूर्व जन्म के जीवन-लीला देखने की मांग की। याज्ञवलक्य  ने  मना
करते हुए कहा की उसे देखने से दुःख होगा। फिर भी जनकराजा  ने दुराग्रह किया।  
ऋषि ने राजा को पूर्वजन्म  का जीवन दिखाया।
राजा ने देखा की उनकी पत्नी पूर्वजन्म में उनकी माता थी। उन्हें बहुत दुःख हुआ।
अतः यही अच्छा है कि  पूर्व जन्म का विचार न करे और इसी जन्म को सार्थक करने का प्रयत्न करे।

भगवान के साथ ही विवाह करो और दूसरों  का भी विवाह कराओ। तुलसी राधारानी का स्वरुप है।
तुलसी-विवाह का अर्थ है अपना भगवान के साथ विवाह(सम्बन्ध).
चातुर्मास में सयंम और तप करने के पश्चात्त ही तुलसी-विवाह हो सकता है।
सयंम का पालन करोगे,तप करोगे तो ईश्वर मिलेंगे।
आत्मा का धर्म है प्रभु के सन्मुख जाना।

भागवत-माहात्म्य

समाप्त

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