Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-34-Skandh-1



सत्कर्मो में अनेक विघ्न आते है.
उन सब विघ्नों  के निवारण के लिए -शास्त्रमें -कथा में बैठते पहले मंगलाचरण करनेकी  आज्ञा है.
शास्त्र कहते है कि  देवगण  भी सत्कर्म में विक्षेप करते है।
देवों  को ईर्ष्या होती है कि  नारायण  का ध्यान करते करते वह भी उनके जैसा हो जायगा।

अतः देवो से भी प्रार्थना करनी आवश्यक हैं -हे देवो! हमारे सत्कार्य में विक्षेप न करना।
सूर्य हमारा कल्याण करें,वरुणदेव हम पर कृपा करे।

जिसका मंगलमय आचरण है, उसका ध्यान करने से,वंदन करने से,और स्मरण करने से
मंगलाचरण होता है।ऐसे एक परमात्मा है। श्रीकृष्ण का नाम और धाम मंगल है।

संसार की  किसी चीज  या जीव का चिंतन न करो। 
ईश्वर का चिंतन- करने से मनुष्य को शक्ति मिलती है।
क्रिया में अमंगलता काम के कारन आती है। काम जिसको स्पर्श करे,जिसे प्रभावित करे उसका सब अमंगल होता है।श्रीकृष्ण को काम स्पर्श नहीं कर सकता। अतः उनका सब कुछ मंगल है।

जिसके मन में काम हो, उसका स्मरण करने से,उसका काम तुम्हारे मन में आएगा।
सकाम के चिंतन से अपने में सकामता आती है और निष्काम के चिंतन से मन निष्काम बनता है।
शिवजी का सब कुछ अमंगल है,फिर भी उनका स्मरण मंगलमय है क्योकि उन्होंने काम को जला कर भस्मीभूत कर दिया है। मनुष्य जब तक सकाम है तब तक उसका मंगल नहीं होता।

ईश्वर पूर्णतः निष्काम है अतः उनका ध्यान और स्मरण करो। परमात्मा बुध्धि से परे  है।
श्रीकृष्ण का ध्यान करने वाला निष्काम बनता है।
श्रीकृष्ण का ध्यान लगातार हो न सके तो कोई बात नहीं पर जगत के स्त्री-पुरुष का ध्यान कभी न करो।

थोड़ा सा सोचने से ख्याल आएगा कि  मन क्यों बिगड़ा हुआ है ?
संसार का चिंतन करने से मन विकृत होता है। प्रभु का चिन्तन  करने से मन सुधरता है।
जीव अमंगल है,प्रभु मंगलमय है। मनुष्य की काम वृति नष्ट हो जाये तो सब कुछ मंगल हो जाता है।  
जो काम के अधीन नहीं है उसका सदा मंगल होता है।
काम जिसे मार सके,पराजित कर सके वह जीव और काम को जो पराजित कर सके वह ईश्वर।
मनुष्य का अपना अमंगल कार्य ही विघ्नकर्ता होता है,किसी और का नहीं।

प्रत्येक कार्य का आरम्भ मंगलाचरण से करो।
भागवत  में तीन मंगलाचरण है-प्रथम में व्यासदेव का,द्वितीय स्कंध में शुकदेवजीका  
और  समाप्ति में सूतजी का। यह सूचित करता है कि -
प्रभात के समय मंगलाचरण करो,मध्याह्न के समय और रात को सोने से पहले मंगलाचरण करो।

व्यासजी ने ध्यान करने का कहते हुए कहा है कि -
मन को एक ही स्वरुप में स्थिर करो। उसका चिंतन करो। उससे मन शुध्ध  होता है।
ध्यान का अर्थ है मानस दर्शन।
राम,कृष्ण ,शिव या किसीका  भी ध्यान करो--किंतु-एक  स्वरुप का  ही ध्यान करो।
"सर्वश्रेष्ठ सत्यस्वरूप प्रभु का ध्यान करता हूँ," ऐसा व्यासजी ने मंगलाचरण में कहा है।
व्यासजी ने कोई नामका आग्रह नहीं किया है ,वो तो कहते है की--किसी भी एक स्वरुप का ध्यान करो।
जो व्यक्ति,प्रभुका - जिस किसी स्वरुप के प्रति आस्थावान हो उसका ही ध्यान धरे।
ठाकुरजी के भी जिस रूप में आनन्द  हो, वही  रूप उत्तम है।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE