एक ही स्वरुप के अनगिनत नाम है। सनातन धर्म के अनुसार देव अनेक होते हुआ भी ईश्वर तो एक ही है। मंगलाचरण में किसी एक देव का नामोल्लेख नहीं है।
ईश्वर एक ही है,केवल उनके नाम और स्वरुप अनेक है।
वृषभानु की आज्ञा थी कि राधा के पास जाने की किसी भी पुरुष को अधिकार नहीं है।
अतः साड़ी पहनकर और चन्द्रावली का श्रृंगार धारण करके कृष्णजी राधा से मिलने जाते थे।
श्री कृष्ण साड़ी पहनते है तो माताजी का स्वरूप बन जाते है।
ईश्वर के अनेक स्वरुप है किन्तु तत्त्व एक ही है।
दीपक के आगे जिस किसी रंग का शीशा रखेंगे, उसी रंग का प्रकाश दिखाई देगा।
हर किसी देव का पूजन करो किन्तु ध्यान तो एक ईश्वर का ही करो।
रुकमणी की भक्ति अनन्य है। पूजन देवी का करती है किन्तु ध्यान तो कृष्ण का ही करती है।
वंदन हर किसी देव को करो,किन्तु ध्यान तो किसी एक देव का करो।
जिस किसी रूप में आस्था और रूचि हो, उसी रूप का ध्यान करो।
ध्यान,ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय में (परमात्मामें ) एकत्व होना आवश्यक है
और ऐसे एकत्व होने पर ही परमानन्द की प्राप्ति होती है।
ध्यान के समय किसी और का चिन्तन मत करो। किसी चेतन का ध्यान करो, जड़ का नहीं।
ध्यान करना ही है तो श्रीकृष्ण का करो।
अनेक जन्मों से इस मन को भटकने की आदत हो गई है। ध्यान में पहले संसार के विषय ही आते है।
वें मन में न आये,ऐसा करने के लिए ध्यान करते समय परमात्मा के नाम का बार-बार चिंतन करो कि
जिससे मन स्थिर हो सके। उच्च स्वर से चिन्तन करो। कृष्णा के कीर्तन से जगत का विस्मरण होता है।
परमात्मा के मंगलमय स्वरुप का दर्शन करते हुए कीर्तन करो।
वाणी कीर्तन करे और आँख दर्शन करे तो मन शुध्ध होता है।
दान या स्नानादि से मन की शुध्धि नहीं होती।
संसार का चिन्तन करते रहने से विकृत हुआ मन ईश्वर के सतत चिन्तन किये बिना शुध्ध नहीं होगा।
शरीर जैसी मलिन चीज कोई नहीं है। इससे परमात्मा का मिलन नहीं हो सकता। इस शरीर का बीज अपवित्र है।
ठाकुरजी को मन से मिलना है। बिना ध्यान के मनोमिलन नहीं हो सकता। आँख से श्री भगवान का दर्शन और मन से स्मरण करोगे तो परमात्मा की शक्ति तुम्हे मिलेगी। ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर की शक्ति जीव को मिलती है। ध्यान करने से ईश्वर और जीव का मिलन होता है। बिना ध्यान के ब्रह्मसंभन्ध नहीं हो सकता।
ध्यान की परिपक्व दशा ही समाधि है। वेदान्त में इसे जीव-मुक्ति माना जाता है।
समाधि दीर्घ समय तक रहने से -ही ज्ञानी ओ को जीते-जी ही मुक्ति का आनन्द मिलता है।
भागवत में बार-बार कहा गया है- कि ध्यान और जप करो।
हरेक चरित्र में इसका वर्णन किया गया है। पुनरुक्ति दोष नहीं है।
किसी सिध्धांत को बुध्धि में दृढ करने के लिए उसे बार-बार कहना पड़ता है।
भागवत के प्रत्येक स्कंध में इस जप-ध्यान की कथा है।