वासुदेव-देवकी ने ग्यारह वर्ष तक ध्यान किया तब उन्हें परमात्मा मिले।
भागवत का आरंभ ध्यान योग से किया गया है।
जो मनुष्य ईश्वर का ध्यान करेगा,वही ईश्वर को प्रिय होगा।
साधन मार्ग का आश्रय लेकर ज्ञानी मुक्त होते है। ज्ञान से ज्ञानी भेद का निषेध करते है।
ज्ञान मार्ग का लक्ष्य है, ज्ञान से भेद को दूर करना। भक्ति से भेद को दूर करना भक्ति मार्ग का लक्ष्य है।
ध्येय एक ही है। सो - भागवत का अर्थ ज्ञानपरक और भक्तिपरक हो सकता है।
मार्ग और साधन भिन्न-भिन्न है -किन्तु ध्येय तो एक ही है।
इसी कारण सगुण और निगुण दोनों की आवश्यकता है।
वैसे तो ईश्वर अरूप है किन्तु जिस रूप की भावना से वैष्णवजन तन्मय होते है,
वैसा स्वरुप ईश्वर धारण करते है।
सगुन-निर्गुण दोनों स्वरूपों का भागवत में निरूपण है।
निर्गुण स्वरूप में प्रभु सर्वत्र है और सगुणस्वरूप में श्रीकृष्ण गोलोक में विराजते है।
इष्टदेव में पूर्णतः विश्वास रखकर ऐसा विश्वास रखो कि
जगत के जड़ और चेतन सभी पदार्थों में प्रभु का वास है।
मंगलाचरण का सगुण -निर्गुण-परक अर्थ हो सकता है।
क्रिया और लीला में अन्तर है। प्रभुजी करे वह है “लीला” और जीव करे वह “क्रिया”।
क्रिया बन्धनरूप है,कारण उसके साथ कर्ता की आसक्ति स्वार्थ और अहंकार का सम्बन्ध होता है।
ईश्वर की लीला बंधन से मुक्त करती है। कारण ईश्वर को स्वार्थ और अभिमान नहीं छू सकते।
जिस कार्य में कर्तुत्व का अभिमान नहीं होता,वह है लीला।
केवल जीवों को परमानन्द का दान करने के लिए प्रभु लीला करते है।
यही कारण है कि मक्खन -चोरी,रास आदि सभी को व्यासजी लीला कहते है।
श्रीकृष्ण मक्खन -चोरी अपने लिए नहीं-किन्तु अपने मित्रों के लिए करते है।
व्यासजी ब्रह्मसूत्र में लिखते है; “लोकवत्तु लीला कैवल्यम्। “
जीवों के कल्याण करने के लिए भगवान लौकिक जीवों जैसी लीला करते है।
जगत्त की उत्पति लीला है,स्थिति लीला है और विनाश भी लीला है।
श्री कृष्ण को -तो-विनाश में भी आनंद है।
युद्ध के बाद-जब श्रीकृष्ण गांधारी को मिलने गए तो गांधारी ने शाप दिया कि
तुम्हारे वंश में कोई नहीं रहेगा क्योकि तुमने मेरे वंश में किसी को भी रहने नहीं दिया है।
परन्तु कृष्ण इसमें खुश है। वे कहते है कि
माताजी मै भी यही सोचता था कि इन सबका विनाश कैसे करू। ठीक ही हुआ की आपने शाप दिया।
“शान्ताकारम भुजंगशयनम्।” यदि शर्प पर भी सोना पड़े तो भी परमात्मा को शांति मिलती है।
जब कि -लोगो को शैया और पलंग मिले तो भी शांति नहीं मिलती।
लय भी भगवान की लीला है।
जीव को उत्पत्ति और स्थिति भाती है परन्तु लय नहीं।
आरंभ में कहा है-"जगत की उत्पति,स्थिति,संहार के कारणभूत श्रीपरमात्मा का हम ध्यान करते है। "